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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


राघवेन्द्र रामभद्र के निकट पहुँचकर उन्हें यदि ज्ञात हो गया कि विश्वहित प्रभु के वननिवास में ही है, तो सच्चे सन्त की भाँति वे लौट जायेंगे। अपनी बात पर अड़े रहना उनका स्वभाव नहीं। वे सच्चे आज्ञाकारी हैं। प्रभु ने भू-भार-हरण की प्रतिज्ञा की है वे सत्य-सन्ध हैं। राघवेन्द्र की सत्य-संधता की रक्षा के लिए वे अपनी इच्छा का सहर्ष बलिदान कर देंगे। क्या सच्चा स्नेही अपनी बात रखने के लिए प्रभु को झूठा सिद्ध करेगा। कदापि नहीं। स्वार्थ के कारण ही तुम भरत के वास्तविक स्वरूप का दर्शन नहीं कर पा रहे हो। तुम्हें तो स्वार्थ-परमार्थ दोनों ही दृष्टियों से श्री भरत के चरणों में ही प्रेम करना चाहिए।

गुरुदेव की मंगलमयी वाणी सुनकर इन्द्र का मोह जाता रहा। आनन्दित होकर उसने सुरतरु के पुष्प श्रद्धांजलि के रूप में भगवत-रत्न के चरणों में अर्पित किए।

उपरोक्त विवेचन में श्री भरत के हृदयगत भावों का वास्तविक चित्र अंकित करने का प्रयास देवगुरु बृहस्पति ने किया है। बहुधा हम अधिकांश व्यक्ति इन्द्र की ही भाँति इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि भरत राम को लौटाने जा रहे हैं। पर उस लौटाने में उनकी कितनी उच्च भावना है, उससे दृष्टि फेर लेते हैं। वहाँ तो स्वार्थ का लेश भी नहीं है। सच्चे प्रेमी और महान् सन्त की भाँति उसमें दो भावनाएँ कार्य कर रही हैं –

1. “प्रभु को वन-वन भटकना पड़ रहा है। हाय! उन्हें यह कष्ट मेरे लिए! उन्हें लौटाऊँगा!” यह प्रेममय दृष्टिकोण है।
2. “समग्र विश्व उनके राज्यासनासीन होने से सन्तुष्ट और सुखी होगा।” यह दूसरी भावना है, जो सन्तत्व का प्रतीक है।

इन भावनाओं में ‘स्व-सुख’ का कोई स्थान नहीं।

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