धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
रकारा दीनी नामानि श्रृण्वतां मम पार्वती।
मनः प्रसन्नतां याति राम नामाभिशंकया।।
श्री भरत ने रविनन्दनी का दर्शन किया और विरह-व्यथा उमड़ पड़ी। विरह-वारिध में यमुना ने मिलकर मानो उसे और भी अथाह बना दिया। पर विरह-समुद्र में डूब जाने का अर्थ है प्रियतम के दर्शन से हाथ धो बैठना। श्री भरत से मिलने के लिए उत्सुक प्रेम-निधि-प्रभु इसे कैसे स्वीकार कर सकते हैं? उन्होंने ‘विवेक’ का जहाज रक्षा के लिए भेज दिया और श्री भरत को बचा लिया। इसका भावार्थ यह है कि श्याम वर्ण देखकर पहले मिलने की उत्कंठा अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई। दूरी की कल्पना होते ही असह्य दुख की पीड़ा हुई। ऐसी परिस्थिति मृत्यु का कारण भी बन सकती है। प्रभु ने एक नवीन बौद्धिक भाव हृदय में प्रकट कर दिया – “अहो! इस मंगलमयी यमुना के रूप में हमारे प्रभु ही तो हैं।” इतना विचार आते ही हृदय की पीड़ा शान्त हो गई।
रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े विवेक जहाज।।
उपरोक्त अर्थ में ही ‘विवेक-जहाज’ का प्रयोग यहाँ जान पड़ता है। अधिकांश रूप में ‘प्रेम’ और ‘विवेक’ को एक दूसरे का विरोधी माना जाता है। किन्तु श्री भरत जी के जीवन को एक विराट समन्वय कहें, तो इसमें कोई आश्चर्य न होगा। वे एक महान् कर्मयोगी, धार्मिक, विवेकी और प्रेममूर्ति हैं। इसलिए उन्हें गोस्वामी जी ने विभिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न रूपों में स्मरण किया है।
जो न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुरि धरणि धरत को।।
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जपु राम रामु जपु जेही।।
भरत बिबेक बराह बिसाला। अनायास उघरी तेहि काला।।
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