धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
उपरोक्त तीनों चौपाइयाँ उन्हें तीन रूपों में चित्रित करती हैं। तब स्वाभाविक ही यह प्रश्न उठता है कि हम उन्हें क्या माने? ज्ञानी, भक्त, किंवा धार्मिक। इसका उत्तर उनके चरित्र का सावधानी से मनन करने पर अपने आप मिल जाता है। धर्म, प्रेम, ज्ञान में कोई विरोध नहीं। तीनों का अन्तिम स्वरूप वास्तव में एक ही है। धर्म और विवेक, पक्षी के दो पंख की भाँति प्रेमी को प्रियतम के निकट पहुँचाने में सहायक होते हैं, बाधक नहीं। विवेक और धर्म का उपयोग करने में मनुष्य स्वतंत्र है। यह तो सत्य है कि यदि धर्म को स्वतंत्र छोड़ दिया जाये, तो वह स्वर्ग की ओर ले जायेगा और विवेक मुक्ति की ओर। पर चतुर प्रेमी तो विवेक और धर्म को भी अपनी उन्नति का साधन बना लेता है।
यहाँ श्री भरत का विवेक प्रयोग देख उन्हें धन्य कहना ही पड़ता है। वे जा रहे हैं – प्रभु को लौटाने के लक्ष्य से। विरह प्रेम का अंग होते हुए भी व्याकुलता के आधिक्य के कारण स्वयं अंगी बनकर प्रेमी को “तत्सुख-सुखित्व” से दूर कर देगा। यहाँ प्राण का बलिदान तो हो जायेगा, पर किसके लिए? अपने दुःखो से छुटकारा पाने के लिए ही तो। अतः चतुर प्रेमी विवेक का आश्रय ग्रहण कर अपने लक्ष्य की ओर द्रुतगति से बढ़ जाता है। इस अनोखे प्रेम के कारण ही उन्हें श्री गोस्वामी जी चातक और हंस के समन्वित रूप में स्वीकार किया है।
राम प्रेम भाजन भरत बड़े न एहिं करतूति।
चातक हंस सराहिअत टेक बिबेक बिभूति।।
चातक ‘प्रेम’ प्रधान और हंस ‘विवेक’ प्रधान माना जाता हैं।
महापुरुषाग्र-गण्य श्री भरत का दर्शन प्राप्त कर ग्राम निवासी स्त्री-पुरुष अपने को धन्य मानने लगे। साक्षात मन्मथ श्री कौशल किशोर ने अपनी रूप माधुरी के द्वारा कुछ दिन पूर्व लोगों का चित्त-वित्त चुरा लिया था। आज उनके ही “वय बपु बरण रूप सोइ आली” वाला नव किशोर प्रेम सुधा का वितरण करता हुआ प्रभु से भी अधिक श्रद्धा का बन गया।
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