धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिंघलवासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु।।
श्री भरत के लिए प्रयाग की उपमा देना स्तुति नहीं वास्तविक सत्य है – अपितु सत्य से भी अधिक। तीर्थराज प्रयाग के कोषागार में चारों फल, ‘अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष’ हैं, पर उन्हें प्राप्त करने वाला अधिकारी चाहिए। अधिकार का स्वरूप है श्रद्धा और विश्वास। विश्वास के बिना वहाँ कुछ भी न प्राप्त हो सकेगा। पर श्री भरत-पयोधि में तो अनन्त रत्न भरे हुए हैं। यहाँ अभिनव तीर्थराज चतुर्वर्ग की तो कथा क्या, ‘प्रेम’ रूप परम फल का भी दमन करने में समर्थ हैं – समर्थ ही नहीं करते भी हैं। अधिकारी-अनाधिकारी का तो प्रश्न ही नहीं उठता। क्योंकि वह स्वयं ही व्यक्ति को अधिकारी भी बना देते हैं। अतः प्रयाग भी इऩसे तुलना करने योग्य नहीं। इतना महान व्यक्ति कितना नम्र है। इसकी साक्षी निम्नलिखित चौपाइयाँ दे रही हैं :
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा।।
मनहीं मन मागहिं बर एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू।।
प्रेम-पयोधि याचना करता है ‘प्रेम-कण’ की। दाता होते हुए भी भिक्षा की झोली सबके सामने पसार देता है। श्री भरत की अनन्यता का स्वरूप यही है। वे प्रभु को छोड़ अन्यों से न माँगने की विचारधारा के अनुयायी नहीं है। यदि उनसे कोई इस विषय में प्रश्न करता तो संभवतः वे यही उत्तर देते कि “वे लोग धन्य हैं जो अपने प्रियतम को छोड़कर दूसरों के सामने हाथ नहीं फैलाते। पर वे सबल हैं, प्रेमी हैं और प्रभु पर उनका अधिकार है। मुझ जैसे प्रेमहीन को ऐसी प्रतिज्ञा करने का क्या अधिकार? भिखारी को प्रेमियों का अनुकरण नहीं करना चाहिए।”
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