धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
किसी किरात ने बड़ी मधुर कथा सुनाई। मैं वन में लकड़ी एकत्र कर रहा था तब तक देखता हूँ कि हमारे राघव धनुष-बाण लिए मृगया के लिए चले आ रहे हैं। अहा! कैसी मधुर छवि थी उस साँवरे की। श्याम तमाल का सा रंग प्रफुल्लित शत दल कमल के समान नेत्र, मस्तक पर जटा मुकुट, विशाल भुजाओं में धनुष-बाण धारण किए वे गज-पति से चले आ रहे थे। उसी समय उधर से निकला मृगों का समूह। प्रभु सावधान हुए, मैंने सोचा अब दौड़ प्रारम्भ होगी – मृगों की और कुमार की। पर यह क्या? सभी मृग एकटक खड़े होकर निहार रहे थे साँवरे को। बाण चढ़ाते देखकर भी वे विचलित न हुए और वैसे ही एकटक देखते रहे। उनकी आँखों में छाया हुआ था प्रेमोन्माद और उधर भी वात्सल्य भरी दृष्टि से प्रभु मृगों को निहार रहे थे। धनुष की प्रत्यंचा ढीली हो गई थी– बाहु शिथिल।
तुलसीदास प्रभु बाण न मोचत सहज सुभाय प्रेम बस भोरे।
अचानक ही पीछे लता जाल को हटाकर प्रिया जी प्रकट हो गई। मन्द हास उनके मुख पर अठखेलियाँ कर रहा था। बड़े ही विनोदमय शब्दों में उन्होंने कहा, “करुणानिधान आर्यपुत्र! हो चुकी मृगया!” और प्रभु जी मुस्करा पड़े उनकी ओर तिरछी दृष्टि से देखकर। मृगों ने और भी निकट पहुँचकर प्रिया जी को घेर लिया और वे सुकोमल कर-कमलों से उसके शरीर को सहलाने लगीं। अहा! मेरे भाग्य का क्या कहना! प्रभु की इस मादक-लीला का दर्शन करके आज मैं निहाल हो गया। इतना कहते-कहते वक्ता भावों में मग्न हो गया और श्रोता की आँखें बररस रही थीं इस कहानी को सुनकर।
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