धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
कथा श्रवण में समय बीतते देर न लगी। सूर्यास्त हो गया और वहीं उस दिन सबने रात्रि बिताई। प्रातःकाल होते ही अभूतपूर्व उत्कंठा और हर्ष के साथ यात्रा प्रारम्भ हुई। आज तो मंगलसूचक प्रिय शकुन भी हो रहे हैं। शकुन भी अपने को सिद्ध करने के लिए उत्सुक हैं। वे भरत के दृष्टिपथ में आकर अपने को धन्य करना चाहते हैं। खंजन-नैन भी फड़क-फड़क कर मानो सबसे पहले उड़कर प्रियतम के निकट पहुँच जाना चाहते हैं। सूरदास जी ने नेत्रों के औत्सुक्य पर बड़ा ही भावमय पद लिखा है –
खंजन नैन रूप रस माते।
अतिशय चपल चारू अनियारे पल पिंजड़ा न समाते।।
चलि चलि जात निकट श्रवणनि कै उलटि पलटि ताटक फँराते।
सूरदास अंजन गुन अटके न तरु अबहिं उड़ि जाते।।
इस प्रकार सारा समाज प्रेम-सुरा का पान कर उन्मत्त हो रहा है। हृदय में अपनी-अपनी भावना के अनुरूप ही विचार उठ रहे हैं। सभी डगमगाते हुए चल रहे हैं। वार्तालाप में शब्दोच्चारण भी ठीक से नहीं हो पाता है। इस तरह श्री भरत के प्रेम ने समग्र पुरवासियों को ही नहीं – जड़-चेतन सभी प्राणियों को प्रेमोन्मत्त कर दिया है। गोस्वामी जी ने उस मादक परिस्थिति का चित्रण बड़े ही भावमय शब्दों में किया है।
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके।।
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिं।।
तभी दीख पड़े शैलराज जिनके निकट ही पयस्विनी तट पर श्री प्रिया-प्रियतम का निवास स्थल है। राम-सखा ने उसकी ओर संकेत किया और सभी आह्लाद सागर में डूब गये। “जय जानकी जीवन” के गम्भीर घोष से सारा प्रदेश गूँज उठा। कुछ क्षण के लिए पुरवासी इतने आह्लादित हुए मानो राम ही अयोध्या लौट पड़े हों।
राम सखा तँहि समय दिखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा।।
जासु समीप सरित पय नीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा।।
देख करहिं सब दण्ड प्रनामा। कहि जय जानकी जीवन रामा।
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिर अवध चले रघुराजू।।
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