धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
श्री भरत की उस समय जो प्रेममयी स्थिति थी, उसका वर्णन तो शेष भी नहीं कर सकते, फिर कवि के लिए तो वह उतनी ही अगम है, जितनी अहंकार और ममत्व से मलिन चित्तवाले व्यक्ति के लिए ब्रह्मसुख की अनुभूति –
भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहिं सकइ न सेषु।
कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुख अह मम मलिन जनेषु।।
यहाँ की भावनामयी परिस्थिति का चित्रण करने के पश्चात् गोस्वामी जी प्रभु की स्थिति का चित्रण इन शब्दों में करते हैं –
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा।।
उपर्युक्त ‘उहाँ’ शब्द अनूठा भाव रखता है। ‘इहाँ’ शब्द कहने वाले की उपस्थिति का सूचक है और ‘उहाँ’ शब्द अनुपस्थिति का। कोई व्यक्ति जब ‘इहाँ’ शब्द का उच्चारण करता है, तो सिद्ध होता है कि कहने वाला स्वयं वहाँ है। वर्तमान काल में जो कुछ वक्ता से दूर है, उसे ‘उहाँ’ शब्द द्वारा संकेत करते हैं। कवि को अनेक स्थलों का वर्णन तो करना ही है। एक ही समय में दो विभिन्न स्थलों पर भिन्न कार्य हो रहे हैं। कवि का कर्त्तव्य है कि वह दोनों का वर्णन करे। पर एक समय में वह एक ही स्थान पर उपस्थित रहकर उसी का वर्णन कर सकता है। और यही हमारे महाकवि ने किया भी है। एक स्थल पर वे स्वयं उपस्थित रहते हैं और दूसरे का वर्णन अपनी दूरदृष्टि से करते हैं। यह तो निश्चित है कि जो स्थल उसे अधिक प्रिय होगा वहीं वह स्वयं उपस्थित रहेगा। इसीलिए कविकुल चूड़ामणि भगवान् राम और रावण के युद्ध का वर्णन करते समय अपने को राघवेन्द्र के निकट रखते हैं और समकालीन लंका की परस्थिति का वर्णन वे प्रभु के निकट बैठकर दिव्य दृष्टि द्वारा करा देते हैं। इस अन्तर को समझने के लिए उनके ‘इहाँ’ और ‘उहाँ’ शब्द के प्रयोग पर ध्यान देना होगा। प्रभु परिस्थिति का चित्रण ‘इहाँ’ और रावण की ‘उहाँ’। उदाहरण के लिए दो-चार चौपाइयाँ देखें –
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