धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
किन्तु श्री भरत के प्रेमांकन में कवि अपनी असमर्थता का ही वर्णन करता है।
भरत प्रेम तेहि समय जस। तस कहिं सकहिं न शेषु।
कबिहि अगम जिमि ब्रह्म सुख। अह मम मलिन जनेषु।।
वैसे कवि ने अनेक स्थलों पर उपमाओं द्वारा श्री भरत-भाव को व्यक्त करने की चेष्टा की है –
जे जन कहहिं कुशल हम देखे। ते जनु मनहुँ राम सम लेखे।।
तापस तप फल पाइ जिमि। सुखी सिराने नेम।।
जनु जोगी परमारथ पावा। मानहुँ पारस पायउ रंका।
प्रश्न यह है कि फिर कवि क्यों मौन हो जाता है? कवि को वर्णन के लिए कुछ आश्रय अपेक्षित है। हृद्गत भावनाओं के द्वारा शरीर में प्रकट होने वाले रोमांच, अश्रु आदि विभिन्न लक्षणों और क्रिया का सहारा लेकर ही कवि किसी उपमा की सृष्टि करता है। पर अन्य स्थलों से यहाँ वैशिष्ट्य है। प्रभु की स्मृति आने पर या उनसे सम्बन्धित किसी वस्तु का दर्शन होने पर श्री भरत के शरीर में रोमांच होता था। अश्रुपात होने लगता था। वस्तुओं को दण्डवत-प्रणाम करते थे, किन्तु अब तो एक ऐसी तन्मयता हुई कि जिससे शरीर समाधि की तरह निश्चेष्ट हो गया। उसमें न रोमांच हुआ, न अश्रुपात। और यहाँ तक कि दण्डवत-प्रणाम करने का उल्लेख नहीं मिलता। इस प्रकार निर्विकल्प समाधि की भाँति प्रेम के उच्चतम स्तर में वे ऐसे निमग्न हो गये कि शरीर, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार – सभी निश्चेष्ट हो गए। प्रेमी और प्रियतम, आराध्य-आराधक, दर्शक और दर्शनीय का भेद मिटकर केवल प्रेम ही प्रेम शेष रह गया। ऐसी परिस्थिति में कवि किस छाया का अनुकरण करके उपमा दे या व्यक्तीकरण की चेष्टा करे। अतः वह उसके सुख की नहीं, अपनी असमर्थता की उपमा देता है।
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