धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
पर इस समय क्यों आ रहे हैं? यह चिन्ता मन में हुई और “कहिहै सब तेरो हियो मेरे मन की बात” के सिद्धान्तानुसार प्रभु को समझते देर न लगी। हृदय ने सब बता दिया। आँखों के सामने श्याम संकोची भरत की मूर्ति स्पष्ट दीखने लगी। दोनों हाथ जोड़े खड़े हैं। विनम्र भाव से अयोध्या लौटने की प्रार्थना कर रहे हैं और तब प्रभु विचलित हो गए – इस कल्पना मात्र से कि मैं क्या उत्तर दूँगा? क्या भरत से ‘नहीं’ कह सकूँगा? हृदय ने उत्तर दिया – कदापि नहीं। बुद्धि ने प्रश्न किया – “फिर मर्यादा, धर्म, देवकार्य, भूभार हरण, इन सबका क्या होगा?” हृदय ने उत्तर दिया – “कुछ भी हो, भरत की बात नहीं टाली जा सकती। मैं मर्यादापुरुषोत्तम न रहूँ कोई चिन्ता नहीं – सत्य संधता, पितृ-भक्ति सब झूठी हो जाए, पर भरत भरत ही है। आज तक जिसने कभी कुछ याचना ही न की, जिसने मेरी आज्ञापालन के लिए विरह का कष्ट उठाया – अपने जीवन को मेरे संकेत पर अर्पित कर दिया। क्या यदि आज वह कुछ इच्छा प्रकट करे, तो मैं उसे अस्वीकार कर दूँगा? ना, ना! मुझसे यह न हो सकेगा।”
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं।।
‘दैन्य’ ही जिसका बल हो और ‘मन’ ही अस्त्र। भला उस विलक्षण सेनानी को हराया भी कैसे जा सकती है? जिसमें प्रेम का अगाध जल और भावना की तरंगें उठती रहती हों, ऐसे भरत महोदधि को किस साधना द्वारा पार किया जा सकता है। भरत के इस स्वभाव का चिन्तन करते-करते प्रभु स्वयं निराश हो गए, जैसे कोई तैराक नदी की बेगवती धारा से थककर बैठ जाए और तब रघुबीर को सहारा भी दिया तो श्री भरत ने ही। भरत की आज्ञाकारिता रूप जहाज ने आकर उबार लिया।
समाधान तब भा यह जाने। भरत कहे महुँ साधु सयाने।।
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