धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
सुजान कौशलेन्द्र सोचने लगे, “अहो! मैं व्यर्थ ही चिन्ता कर रहा था। जिसने अपने जीवन का आदर्श केवल आज्ञाकारिता बनाया है, वह दृढ़निश्चयी क्या किसी भी परिस्थिति में मुझे आज्ञा देगा? साधु ही धर्म के रक्षक हैं। सदा दूसरों को सुखी बनाना ही उसका लक्ष्य है। फिर भरत क्या विश्व को सुखी करने के लिए कष्ट नहीं उठावेंगे? वह तो सन्तों में अग्रगण्य हैं। वह सयाना है। महान् है। क्या वह कभी हठी और दुराग्रही हो सकता है? सयाने जन संकेत से ही सब कुछ समझ लेते हैं। उसे समझाने के लिए क्या प्रयास करना होगा?” और तब सरकार प्रसन्न और शान्त हो गए। किन्तु परमानुरागी श्री लक्ष्मण ने प्रभु के हृदयस्थ द्वन्द्व को किसी दूसरे ही रूप में लिया। चतुरंगिणी सेना के साथ आगमन से उनकी भावना को पुष्टि मिली। फिर क्या था? वीर रस जागृत हो गया। गरज उठे महाव्रती और फिर जो मन में आया कह डाला प्रेममूर्ति भरत के लिए। वध के लिए प्रत्यंचा चढ़ाई गई और प्रतिज्ञा भी।
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू।।
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता।।
लक्ष्मण की इस भीषण प्रतिज्ञा को सुन पृथ्वी काँपने लगी। चारों ओर हाहाकार मच गया। पर प्रश्न उठता है कि प्रभु क्यों मौन हैं? यह तो स्पष्ट ही है कि उनके हृदय में भरत के प्रति कोई सन्देह नहीं। फिर उन्होंने लक्ष्मण को रोक क्यों न दिया? राघवेन्द्र लक्ष्मण के स्वभाव से अच्छी तरह परचित हैं। वे जानते हैं कि आज्ञापालन की अपेक्षा मेरी प्रतिष्ठा का उन्हें अधिक ध्यान रहता है। परशुराम के प्रसंग में बार-बार निषेध करने पर भी वे मौन न रह सके। कटूक्तियों का उत्तर हास्य और व्यंग्य से देते रहे। फिर यहाँ तो प्रभु को मौन रखने के लिए एक वाक्य पहले ही कह चुके हैं।
नाथ सुहृद सुठी सरल चित सील सनेह निधान।
सब पर प्रीति प्रतीति जिअँ जानिअ आपु समान।।
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