धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
आकाश विशाल है, किन्तु उसकी भी एक सीमा तो है ही। भरत तो सर्वथा निरवधि हैं “निरवधि गुन निरुपम पुरुष, भरत भरत सम आहि” समग्र आकाश को न सही, पर लघु अंश को अवश्य मेघ ढकने में समर्थ हो जाता है। पर श्री भरत के हृदय-रूप-निर्मल आकाश में वासना के काले बादल कभी आये ही नहीं। ये सर्वथा वासना रहित बने रहे।
महर्षि अगस्त्य ने समुद्र का पान कर लिया। किन्तु उस समुद्र में खारा जल ही तो था। पर श्री भरत के हृदय में तो रामयश-रूप मधुर-मनोहर-मंगलकारी जल का अथाह लहराता रहता है। फिर भी वे अतृप्त बने रहते हैं। “सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं, बहुरि बहुरि करि विनय कहावहिं” से इसी अतृप्ति का संकेत मिलता है।
धरित्री क्षमाशील है किन्तु परद्रोहियों को वह भी क्षमा नहीं कर पाती। स्वयं ही उसने “गिरि सरि सिन्धु भार नहिं मोहीं, जस मोहि गरुअ एक पर द्रोही” कहकर इसे स्वीकार किया है। पर श्री भरत प्रभुद्रोही मन्थरा को भी क्षमा कर देते हैं। उनकी क्षमाशीलता अद्वितीय है। सुमेरु अपनी गुरुता के लिए प्रसिद्ध है, हिरण्यकशिपु और रावण के भय से वह भी काँप उठता है, पर श्री भरत तो उस महारथियों में हैं, जो सदा अडिग बने रहते हैं। अपनी निष्ठा से कभी विचलित नहीं होते। बाणासुर के द्वारा उठाया गया सुमेरु श्री भरत की गुरुता की तुलना कैसे कर सकता है?
इसीलिए प्रभु संकेत करते हुए कहते हैं कि भले ही तरुण सूर्य को अन्धकार निकल जाये। आकाश को मेघ ढक ले। अगस्त्य गोपद में डूब जायें। पृथ्वी क्षमाशीलता को छोड़ दे और सुमेरु मच्छर की फूँक में उड़ जाए, पर भरत को राज्य-मद नहीं हो सकते। उदाहरणों के द्वारा श्री भरत की विशेषता नहीं समझाई जा सकती । क्योंकि विश्व में ऐसी कोई वस्तु है ही नहीं जिससे भरत की तुलना की जा सके। अतः प्रभु स्वयं ही बड़े मार्मिक शब्दों में बोले –
सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा।।
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