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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


काम  सो रूप, प्रताप दिनेस सों।
सोम  सों  सील, गनेस तें मानी।।
हरीचन्द सों दाता बड़ो बिधि सों।
मघवा सों महीम विषय सुखसाने।।
सुक  तें  मुनि, सारद तें  वकता।
चिरजीवन  लोमस तें अधिकाने।।
ऐते भए तो  कहा तुलसी जो पै।
जानकी  जीवन  राम  न जाने।।

भगवदाश्रय रहित होने से ही उन लोगों का पतन हुआ। पर भक्त की रक्षा, उनकी चिन्ता तो स्वयं प्रभु को रहती है। इस तरह श्री भरत की तुलना क्षीरसागर से करके राघवेन्द्र ने श्री लक्ष्मण जी को संकेत किया कि क्या मेरा आश्रय ग्रहण करने वाला मदोन्मत्त हो सकता है? क्या तुम स्वयं श्री भरत के विषय में यह नहीं स्वीकार कर चुके हो कि “प्रभुपद प्रीति सकल जग जाना” – फिर उनकी तुलना इन्द्र, सहस्रबाहु आदिकों से क्यों करते हो?

इसके पश्चात् पाँच असम्भव उदाहरणों के द्वारा प्रभु उनकी उपेक्षा भी भरत को राज्य-मद होना असम्भव सिद्ध करते हैं। यहाँ पाँच उदाहरण देने का तात्पर्य श्री भरत की महिमा सिद्ध करना है। पाँचों मिलकर भी भरत की तुलना नहीं कर सकते। तरुण सूर्य सबसे अधिक तेजस्वी है। आकाश सबसे विशाल है। घटयोनि विलक्षण दैवीसम्पत्ति-सम्पन्न हैं। पृथ्वी क्षमाशील और सुमेरु गुरुता-सम्पन्न है। इस सब में तो एक-एक ही विशिष्ट गुण है। किन्तु श्री भरत जी में पाँचों हैं।

सूर्य तेजस्वी है, किन्तु उसका अन्धकार से विरोध है। उसका नाम तमारि है। किन्तु श्री भरत के कीर्तिरूप यशचन्द्र से किसी का विरोध नहीं। वह दिन-रात्रि में समान रूप से प्रकाशित रहता है।

उदित सदा अथइहि कबहूँना।

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