धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
इस सपथ से एक बात और स्पष्ट है कि श्री भरत जी के प्रति प्रभु के दोनों भाव हैं – पिता के समान आदर की भावना और लक्ष्मण के समान वात्सल्य की भावना। “जग जप राम रामु जपु जेही” और “जानि तुमहिं मृदु कहउँ कठोरा” से इन दोनों भावों की पुष्टि भी हो जाती है।
यदि कोई यह तर्क करे कि ब्रह्मा ने, “जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार” के सिद्धान्तानुसार मिश्रित सृष्टि बनाई है, तो श्री भरत में गुणों के साथ किंचित् दोष अवश्य होंगे। इसके उत्तर में प्रभु ने कहा – “यह ठीक है कि ब्रह्मा ने गुण-दोषमय सृष्टि को दूध-पानी की तरह इतना एकमेव कर दिया है कि उसका पृथककरण असम्भव है। पर यह सिद्धान्त हम पर लागू नहीं किया जा सकता, वह तो क्षीर-निवासी है। पानी को पृथक कर देना उसका सहज गुण है। उसी तरह रविवंश-तड़ाग में जन्म लेकर भरत-हंस ने भी उसी सत्य को चरितार्थ किया। वह अवगुणरूप जल का परित्याग कर गुण-रूप दुग्ध को पी लेते हैं। इसी प्रकार अन्यों के लिए असम्भव कार्य को सम्भव बना देने वाले यशस्वी भरत धन्य हैं।” इतना कहते-कहते प्रभु मौन हो गए, क्योंकि भरत-स्मरण से उनका कण्ठ रुद्ध हो गया और प्रेम-पयोधि में निमग्न हो गए। मानो पयोधि का स्नानार्थी चलते-चलते वहाँ तक पहुँच गया जहाँ तक अगाध था। अथाह जल में डूबने पर शब्द निकलना असम्भव हो जाता है। गोस्वामी जी न इन शब्दों में इसका उपसंहार किया –
मिलइ रचइ परपंचु विधाता।।
भरत हंस रबिबंस तड़ागा।
जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा।।
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी।
निज जस जगत कीन्हि उजिआरी।।
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ।
पेम पयोधि मगन रघुराऊ।।
दो. – सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानेकतु।।
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