धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भरत के प्रति राघवेन्द्र का ऐसा स्नेह देखकर देवगण राम की प्रशंसा करते हुए कहने लगे – “अहा! प्रभु सा कृपा-निकेतन कौन है?” यहाँ गोस्वामी जी ने देवताओं के लिए ‘बिबुध’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘बिबुध’ का अर्थ है ‘विशेष विद्वान’ साधारणतया गोस्वामी जी ने देवताओं की स्वार्थ-प्रवृत्ति को दृष्टिगत रखकर उनकी आलोचना की है। किन्तु यहाँ श्री भरत की प्रशंसा सुनकर देवताओं को प्रसन्न होते देख भी गोस्वामी भी उनके लिए ‘बिबुध’ शब्द का प्रयोग कर देते हैं। किन्तु देवताओं के कहने में कुछ भ्रम की सम्भावना है। श्री भरत की प्रशंसा सुनकर प्रभु की कृपालुता की सराहना करने का अभिप्राय मानों यह हो जाता है कि श्री भरत के गुणों की विशेषता न होकर प्रभु के स्वभाव का ही वैशिष्ट्य हो।
वस्तुतः साधऩा की दृष्टि से व्यक्ति की स्वकीय विशेषता को उसके पुरुषार्थ का परिणाम मानकर कृपा का ही परिणाम माना जाता है। कृपा और साधना परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। साधना के अभाव में कृपा की मान्यता केवल व्यक्ति के आलस्य की पोषक हो जायगी। और कृपाविहीन साधऩा की मान्यता से अहंकार-वृद्धि होना संभव है।
भरत चरित्र में इन दोनों का समन्वय है।
सदोष व्यक्ति को भगवान् अपना दास बना लें। किन्तु वह प्रभु के यश-वृद्धि का कारण नहीं बनता, और मुक्त हो जाने पर भ उसका नाम बदनाम ही रहता है। उदाहरण के लिए अजामिल को ले लीजिए। गोस्वामी जी ने इस विषय में एक भावपूर्ण दोहा लिखा है –
गयो अजामिल लोक हरि नाम सक्यो नहिं धोइ।।
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