जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
फिर भी, मेरे प्रयोग का अन्तिम परिणाम तो भविष्य ही बता सकता हैं। यहाँ इस विषय की चर्चा करने का हेतु तो यह हैं कि मनुष्य-जाति की उत्क्रांति का अध्ययन करने वाले लोग गृह-शिक्षा और स्कूली शिक्षा के भेद का और माता-पिता द्वारा अपने जीवन में किये हुए परिवर्तनों का उनके बालकों पर जो प्रभाव पड़ता हैं उसका कुछ अन्दाज लगा सके।
उसके अतिरिक्त उस प्रकरण का एक उद्देश्य यह भी है कि सत्य का पुजारी इस प्रयोग से यह देख सके कि सत्य की आराधना उसे कहाँ तक ले जाती हैं, और स्वतंत्रता देवी का उपासक देख सके कि वह देवी कैसी बलिदान चाहती हैं। बालकों को अपने साथ रखते हुए भी यदि मैंने स्वाभिमान का त्याग किया होता, दूसरे बालक जिसे न पा सके उसकी अपने बालकों के लिए इच्छा न रखने के विचार का पोषण न किया होता, तो मैं अपने बालकों को अक्षरज्ञान अवश्य दे सकता था। किन्तु उस दशा में स्वतंत्रता और स्वाभिमान का जो पदार्थ पाठ वे सीखे वह न सीख पाते। और जहाँ स्वतंत्रता तथा अक्षर-ज्ञान के बीच ही चुनाव करना हो तो वहाँ कौन कहेगा कि स्वतंत्रता अक्षर-ज्ञान से हजार गुनी अधिक अच्छी नहीं हैं?
सन् 1920 में जिन नौजवानो को मैंने स्वतंत्रता-घातक स्कूलो और कॉलेजो को छोडने के लिए आमंत्रित किया था, और जिनसे मैंने कहा था कि स्वतंत्रता के लिए निरक्षर रहकर आम रास्ते पर गिट्टी फोड़ना गुलामी में रहकर अक्षर-ज्ञान प्राप्त करने से कहीं अच्छा हैं, वो अब मेरे कथन के मर्म को कदाचित् समझ सकेंगे।
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