जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
सेवावृत्ति
वकालत का मेरा धन्धा अच्छा चल रहा था, पर उससे मुझे संतोष नहीं था। जीवन अधिक सादा होना चाहिये, कुछ शारीरिक सेवा-कार्य होना चाहिये, यह मन्थन चलता ही रहता था।
इतन में एक दिन कोढ़ से पीड़ित एक अपंग मनुष्य मेरे घर आ पहुँचा। उसे खाना देकर बिदा कर देने के लिए दिल तैयार न हुआ। मैंने उसको एक कोठरी में ठहराया, उसके घाव साफ किये और उसकी सेवा की।
पर यह व्यवस्था अधिक दिन तक चल न सकती थी। उसे हमेशा के लिए घर में रखने की सुविधा मेरे पास न थी, न मुझमें इतनी हिम्मत ही थी। इसलिए मैंने उसे गिरमिटयों के लिए चलनेवाले सरकारी अस्पताल में भेज दिया।
पर इससे मुझे आश्वासन न मिला। मन में हमेशा यह विचार बना रहता कि सेवा-शुश्रूषा का ऐसा कुछ काम मैं हमेशा करता रहूँ, तो कितना अच्छा हो ! डॉक्टर बूथ सेंट एडम्स मिशन के मुखिया थे। वे हमेशा अपने पास आनेवालो को मुफ्त दवा दिया करते थे। बहुत भले और दयालु आदमी थे। पारसी रुस्तमजी की दानशीलता के कारण डॉ. बूथ की देखरेख में एक बहुत छोटा अस्पताल खुला। मेरी प्रबल इच्छा हुई कि मैं इस अस्पताल में नर्स का काम करुँ। उसमें दवा देने के लिए एक से दो घंटों का काम रहता था। उसके लिए दवा बनाकर देनेवाले किसी वेतनभोगी मनुष्य की स्वयंसेवक की आवश्यकता थी। मैंने यह काम अपने जिम्मे लेने और अपने समय में से इतना समय बचाने का निर्णय किया। वकालत का मेरा बहुत-सा काम तो दफ्तर में बैठकर सलाह देने, दस्तावेज तैयार करने अथवा झगड़ो का फैसला करना का होता था। कुछ मामले मजिस्ट्रेट की अदालत में चलते थे। इनमे से अधिकांश विवादास्पद नहीं होते थे। ऐसे मामलो को चलाने की जिम्मेदारी मि. खान में, जो मुझसे बाद में आये थे और जो उस समय मेरे साथ ही रहते थे, अपने सिर पर ले ली और मैं उस छोटे-से अस्पताल में काम करने लगा।
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