जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मेरा ढृढ़ विश्वास है कि मनुष्य बालक के रूप में माता का जो दूध पीता हैं, उसके सिवा उसे दूसरे दूध की आवश्यकता नहीं है। हरे औऱ सूखे बनपक्व फलो के अतिरिक्त मनुष्य का और कोई आहार नहीं हैं। बादाम आदि के बीजों में से और अंगूर आदि फलों में से उसे शरीर और बुद्धि के लिए आवश्यक पूरा पोषण मिल जाता है। जो ऐसे आहार पर रह सकता है, उसके लिए ब्रह्मचर्यादि आत्म-संयम बहुत सरल हो जाता है। जैसा आहार वैसी डकार, मनुष्य जैसा हैं वैसा बनता हैं, इस कहावत में बहुत सार हैं। उसे मैंने और मेरे साथियों ने अनुभव किया हैं।
इन विचारों का विस्तृत समर्थन मेरी आरोग्य-सम्बन्धी पुस्तकों में हैं।
पर हिन्दुस्तान में अपने प्रयोगों को सम्पूर्णता तक पहुँचना मेरे भाग्य में बदा न था। खेड़ा जिले में सिपाहियो की भरती का काम मैं अपनी भूल से मृत्युशय्या पर पड़ा। दूध के बिना जीने के लिए मैंने बहुत हाथ-पैर मारे। जिन वैद्यो,डॉक्टरों और रसायम शास्त्रियो को मैं जानता था, उनकी मदद माँगी। किसी ने मूंग के पानी, किसी में महुए के तेल और किसी ने बादाम के दूध का सुझाव दिया। इन सब चीजो के प्रयोग करते-करते मैंने शरीर को निचोड डाला, पर उससे मैं बिछौना छोड़कर उठ न सका।
वैद्यो ने मुझे चरक इत्यादि के श्लोक सुनाकर समझाया कि रोग दूर करने के लिए खाद्याखाद्य की बाधा नहीं होती और माँसादि भी खाये जा सकते हैं। ये वैद्य दुग्धत्याग पर ढृढ़ रहने में मेरी सहायता कर सके, ऐसी स्थिति न थी। तब जहाँ 'बीफ-टी' ( गोमाँस की चाय) और 'ब्रांडी' की गुंजाइश हो, वहाँ से तो दूध के त्याग में सहायता मिल ही कैसे सकती थी? गाय-भैंस का दूध तो मैं ले ही नहीं सकता था। यह मेरा व्रत था। व्रत का हेतु तो दूध मात्र का त्याग था। पर व्रत लेते समय मेरे सामने गोमाता और भैंसमाता ही थी इस कारण से और जीने की आशा से मैंने मन को जैसे-तैसे फुसला लिया। मैंने व्रत के अक्षर का पालन किया और बकरी का दुध लेने का निश्चय किया। बकरी माता का दूध लेते समय भी मैंने यह अनुभव किया कि मेरे व्रत की आत्मा का हनन हुआ हैं।
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