जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
शांतिनिकेतन में मेरे मंडल को अलग से ठहराया गया था। यहाँ मगनलाल गाँधी उस मंडल को संभाल रहे थे और फीनिक्स आश्रम के सब नियमों का पालन सूक्षमता से करते-कराते थे। मैंने देखा कि उन्होंने अपने प्रेम, ज्ञान और उद्योग के कारण शांतिनिकेतन में अपनी सुगन्ध फैला दी थी। एंड्रूज तो यहाँ थे ही। पियर्सन थे। जगदानन्दबाबू, नेपालबाबू, संतोषबाबू, क्षितिमोहनबाबू, नगेनबाबू, शरदबाबू और कालीबाबू के साथ हमारा खासा सम्पर्क रहा। अपने स्वभाव के अनुसार मैं विद्यार्थियो और शिक्षकों में घुलमिल गया, औऱ स्वपरिश्रम के विषय में चर्चा करने लगा। मैंने वहाँ के शिक्षकों के सामने यह बात रखी कि वैतनिक रसोईयों के बदले शिक्षक और विद्यार्थी अपनी रसोई स्वयं बना ले तो अच्छा हो। ऐसा करने से आरोग्य और नीति की दृष्टि से रसोईघर पर शिक्षक समाज का प्रभुत्व स्थापित होगा और विद्यार्थी स्वावलम्बन तथा स्वयंपाक का पदार्थ-पाठ सीखेंगे। एक दो शिक्षको में सिर हिलाकर असहमति प्रकट की। कुछ लोगों को यह प्रयोग बहुत अच्छा लगा। नई चीज, फिर वह कैसी भी क्यों न हो, बालकों को तो अच्छी लगती ही हैं। इस न्याय से यह चीज भी उन्हें अच्छी लगी औऱ प्रयोग शुरू हुआ। जब कविश्री के सामने यह चीज रखी गयी तो उन्होंने सहमति दी कि यदि शिक्षक अनुकूल हो, तो स्वयं उन्हें यह प्रयोग अवश्य पसंद होगा। उन्होंने विद्यार्थियो से कहा, 'इसमे स्वराज्य की चाबी मौजूद है।'
पियर्सन ने प्रयोग को सफल बनाने में अपने आप को खपा लिया। उन्हे यह बहुत अच्छा लगा। एक मंडली साग काटने वालो की बनी, दूसरी अनाज साफ करने वालो की। रसोईघर के आसपास शास्त्रीय ढंग से सफाई रखने के काम में नगेनबाबू आदि जुट गये। उन लोगों को कुदाली से काम करते देखकर मेरा हृदय नाच उठा।
लेकिन मेंहनत के इस काम को सवा सौ विद्यार्थी और शिक्षक भी एकाएक नहीं अपना सकते थे। अतएव रोज चर्चाये चलती थी। कुछ लोग छक जाते थे। परन्तु पियर्सन क्यों छकने लगे? वे हँसते चेहरे से रसोईघर के किसी न किसी काम में जुटे रहते थे। बड़े बड़े बरतन माँजना उन्हीं का काम था। बरतन माँजने वाली टुकडी की थकान उतारने के लिए कुछ विद्यार्थी वहाँ सितार बजाते थे। विद्यार्थियों ने प्रत्येक काम को पर्याप्त उत्साह से अपना लिया और समूचा शांतिनिकेतन मधुमक्खियों के छ्ते की भाँति गूँजने लगा।
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