जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
बैरिस्टर तो बने लेकिन आगे क्या?
मैं जिस काम के लिए (बारिस्टर बनने) विलायत गया था, उसका मैंने क्या किया, इसकी चर्चा मैंने अब तक छोड़ रखी थी। अब उसके बारे में कुछ लिखने का समय आ गया हैं।
बारिस्टर बनने के लिए दो बातों की जरूरत थी। एक थी 'टर्म पूरी करना' अर्थात् सत्र में उपस्थित रहना। वर्ष में चार सत्र होते थे। ऐसे बारह सत्रों में हाजिर रहना था। दूसरी चीज थी, कानून की परीक्षा देना। सत्रों में उपस्थिति का मतलब था, 'दावतें खाना' ; यानि हरएक सत्र में लगभग चौबीस दावते होती थी, उनमें से छह में सम्मिलित होना। दावतों में भोजन करना ही चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं था, परन्तु निश्चित समय पर उपस्थिति रहकर भोज की समाप्ति तक वहाँ बैठे रहना जरूरी था। आम तौर पर तो सब खाते-पीते ही थे। खाने में अच्छी-अच्छी चींजे होती थी और पीने के लिए बढ़िया मानी जानेवाली शराब। अलबत्ता, उसके दाम चुकाने होते थे। यह रकम ढाई से साढ़े तीन शिलिंग होती थी ; अर्थात् दो-तीन रुपये का खर्च हुआ। वहाँ यह कीमत बहुत कम मानी जाती थी, क्योंकि बाहर के होटल में ऐसा भोजन करने वालो को लगभग इतने पैसे तो शराब के ही लग जाते थे। खाने की अपेक्षा शराब पीनेवाले को खर्च अधिक होता हैं। हिन्दुस्तान में हम को (यदि हम 'सभ्य' न हुए तो) इस पर आश्चर्य हो सकता हैं। मुझे तो विलायत जाने पर यह सब जानकर बहुत आघात पहुँचा था। और मेरी समझ में नहीं आता था कि शराब पीने के पीछे इतना पैसा बरबाद करने की हिम्मत लोग कैसे करते हैं। बाद में समझना सीखा ! इन दावतों में मैं शुरू के दिनों में कुछ भी न खाता था, क्योंकि मेरे काम की चीजों में वहाँ सिर्फ रोटी, उबले आलू और गोभी होती थी। शुरू में तो ये रुचे नहीं, इससे खाये नहीं। बाद में जब उनमे स्वाद अनुभव किया तो तो दूसरी चीजें भी प्राप्त करने की शक्ति मुझ में आ गयी।
विद्यार्थियों के लिए एक प्रकार के भोजन की और 'बेंचरों' (विद्या मन्दिर के बड़ो) के लिए अलग से अमीरी भोजन की व्यवस्था रहती थी। मेरे साथ एक पारसी विद्यार्थी थे। वे भी अन्नाहारी बन गये थे। हम दोनो ने अन्नाहार के प्रचार के लिए 'बेंचरों' के भोजन में से अन्नाहारी के खाने लायक चीजों की माँग की। इससे हमें 'बेंचरों' की मेंज पर परसे फल वगैरा और दूसरे शाक सब्जियाँ मिलने लगी।
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