जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
शराब तो मेरे काम की नहीं थी। चार आदमियों के बीच दो बोतले मिलती थी। इसलिए अनेक चौकड़ियों में मेरी माँग रहती थी। मैं पीता नहीं था, इसलिए बाकी तीन को दो बोतल जो 'उड़ाने' को मिल जाती थी ! इसके अलावा, इन सत्रों में 'महारात्रि' (ग्रैंड नाइट) होती थी। उस दिन 'पोर्ट' और 'शेरी' के अलावा 'शेम्पन' शराब भी मिलती थी। 'शेम्पन' की लज्जत कुछ और ही मानी जाती हैं। इसलिए इस 'महारात्रि' के दिन मेरी कीमत बढ़ जाती थी और उस रात हाजिर रहने का न्योता भी मुझे मिलता।
इस खान-पान से बारिस्टरी में क्या बृद्धि हो सकती हैं, इसे मैं न तब समझ सका न बाद में। एक समय ऐसा अवश्य था कि जब इन भोजों में थोड़े ही विद्यार्थी सम्मिलित होते थे और उनके तथा 'बेंचरों' के बीच वार्तालाप होता और भाषण भी होते थे। इससे उन्हें व्यवहार -ज्ञान प्राप्त हो सकता था। वे अच्छी हो चाहे बुरी, पर एक प्रकार की सभ्यता सीखते थे और भाषण करने की शक्ति बढ़ाते थे। मेरे समय में तो यह सब असंभव ही था। बेंचर तो दूर, एक तरफ, अस्पृश्य बनकर बैठे रहते थे। इस पुरानी प्रथा का बाद में कोई मतलब नहीं रह गया। फिर भी प्राचीनता के प्रेमी धीमे इंगलैंड में वह बनी रही।
कानून की पढाई सरल थी। बारिस्टर मजाक में 'डिनर' (भोज के) बारिस्टर ही कहलाते थे। सब जानते थे कि परीक्षा का मूल्य नहीं के बराबर हैं। मेरे समय में दो परीक्षाये होती थी, रोमन लॉ और इंगलैंड के कानून की। दो भागो में दी जाने वाली इस परीक्षा की पुस्तके निर्धारित थी। पर उन्हें शायद ही कोई पढता था। रोमन लॉ पर लिखे संक्षिप्त नोट मिलते थे। उन्हें पन्द्रह दिन में पढकर पास होने वालो को मैंने देखा था। यही चीज इंग्लैंड के कानून के बारे में भी थी। उस पर लिखे नोटों को दो-तीन महीनों में पढ़कर तैयार होने वाले विद्यार्थी भी मैंने देखे थे। परीक्षा के प्रश्न सरल, परीक्षक उदार। रोमन लॉ में पंचानवे से निन्यानवे प्रतिशत तक लोग उत्तीर्ण होते थे और अंतिम परीक्षा में पचहत्तर प्रतिशत या उससे भी अधिक। इस कारण अनुत्तीर्ण होने का डर बहुत कम रहता था। फिर परीक्षा वर्ण में एक बार नहीं चार बार होती थी। ऐसी सुविधा वाली परीक्षा किसी के लिए बोझरुप हो ही नहीं सकती थी।
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