धर्म एवं दर्शन >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
ऐसा नहीं है कि मनुष्यों की इच्छाएँ पूर्ण नहीं होती हों, किंतु इच्छाएँ उसी मनुष्य की पूर्ण होती हैं जो उनको सीमित एवं नियंत्रित रखता है। जिसकी आकांक्षाएँ अनियंत्रित हैं, जिनका कोई ओर- छोर ही नहीं है उसकी कोई भी महत्वाकांक्षा पूर्ण होने में संदेह रहता है। बहुधा अनंत आकांक्षाओं वाले व्यक्ति को घोरतम निराशा का ही सामना करना पड़ता है।
इच्छाओं के ऐसे दुष्परिणाम देखकर ही भारतीय मनीषियों ने इच्छाओं को त्याज्य बतलाया है। उन्होंने अच्छी प्रकार इस सत्य को अनुभव कर लिया था कि जो इच्छाओं के प्रति त्याग भावना नहीं रखता उसकी इच्छाएँ धीरे-धीरे एक से दो और दो से चार होती हुई शीघ्र ही बढ़ती चली जाती हैं और फिर वे न तो नियंत्रण में आ जाती हैं न पूरी हो पाती हैं। फलस्वरूप मनुष्य को घोर निराशा की स्थिति में पहुँचा देती हैं। अतएव ऋषि-मुनियों ने हृदय को पूर्ण रूप से निष्काम रखने का ही आदेश दिया है।
इस इच्छा त्याग का गलत अर्थ लगाकर लोग यह कह उठते हैं कि जिसमें कोई इच्छा नहीं होगी, वह कोई काम ही न करेगा और यदि एक दिन संसार का हर मनुष्य इच्छा रहित होकर निष्काम हो जाए तो सृष्टि की सारी गतिविधि ही नष्ट हो जाए और यह चौपट हो जाए।
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