धर्म एवं दर्शन >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
इच्छाओं के त्याग का अर्थ यह कदापि नहीं कि मनुष्य प्रगति, विकास, उत्थान और उन्नति की सारी कामनाएँ छोड्कर निष्क्रिय होकर बैठ जाए। इच्छाओं के त्याग का अर्थ उन इच्छाओं को छोड़ देना है जो मनुष्य के वास्तविक विकास में काम नहीं आतीं, बल्कि उलटे उसे पतन की ओर ही ले जाती हैं। जो वस्तुएँ आत्मोन्नति में उपयोगी नहीं, जो परिस्थितियाँ मनुष्य को भुलाकर अपने तक सीमित कर लेती हैं, मनुष्य को उनकी कामना नहीं करनी चाहिए। साथ ही वांछनीय कामनाओं को इतना महत्त्व न दिया जाए कि उनकी अपूर्णता शोक बनकर सारे जीवन को ही आक्रांत कर ले।
मनुष्य का लगाव इच्छाओं से नहीं, बल्कि उनकी पूर्ति के लिए किए जाने वाले कर्म से ही होना चाहिए। इससे कर्म की गति में तीव्रता आएगी और मनुष्य की क्षमताओं में वृद्धि होगी, जिससे मनोवांछित फल पाने में कोई संदेह नहीं रह जाएगा। इसके साथ ही केवल कर्म से लगाव होने पर यदि कोई प्रयत्न असफल होता है, तो मनुष्य उससे अधिक उपयुक्त प्रयत्न में लग जाएगा। असफलता उसे प्रभावित नहीं कर पाएगी इच्छा के प्रति लगाव रहने से प्रयत्न की असफलता पर मनोवांछा पूरी न होने से उसका जी रो उठेगा। वह अपनी कामना के लिए तड़पने और कलपने लगेगा। अपेक्षित फल न पाने से उसे कर्म के प्रति विरक्ति होने लगेगी, प्रयत्नों से घृणा हो जाएगी और तब कर्म का अभाव उसको निष्क्रिय बनाकर घोर निराशा की स्थिति में भेज देगा। अस्तु मनुष्य को मनोवांछाएँ प्राप्त करने और निराशा के भयानक अभिशाप से बचने के लिए अपना लगाव इच्छाओं के प्रति नहीं, बल्कि उनके लिए आवश्यक प्रयत्नों के प्रति ही रखना चाहिए।
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