धर्म एवं दर्शन >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
मनुष्य की वे वासनाएँ उपयुक्त कही जा सकती हैं जो उसके विकास में सहायक हों। संपत्ति की कामना तभी उपयुक्त है जब वह कोई महान कार्य संपादित करने में काम आए संपत्ति की कामना इसलिए करना ठीक नहीं कि लोग हमें धनवान समझें, समाज में प्रभाव बड़े, संसार की हर चीज प्राप्त की जाए भोगों के अधिक साधन संग्रह किए जाएँ। लोग संतान की वासना करते हैं, ठीक है संतान की कामना स्वाभाविक है, किंतु संतान को केवल इसलिए चाहना कि मैं पुत्रवान समझा जाऊँ, संपत्ति का कोई उत्तराधिकारी हो जाए, बहुत उपयुक्त नहीं। देश को अपने प्रतिनिधि के रूप में एक अच्छा नागरिक देने के लिए संतान की कामना महान एवं उपयुक्त है। लोग जीवन में कीर्ति चाहते हैं, अपनी ख्याति चाहते हैं और उसके लिए न जाने कौन-कौन से उपाय प्रयोग किया करते हैं। ख्याति इसीलिए चाहना ठीक नहीं, कि समाज में प्रभाव बढ़ेगा, उससे हजार प्रकार के काम निकलेंगे, लोग आदर करेंगे, चाटुकारी करेंगे, प्रतिष्ठा बढ़ेगी। मनुष्य को कीर्तिकामी होना चाहिए किंतु यह तभी ठीक होगा कि वह कीर्ति का उपार्जन अपने सत्कर्मों से करे, अन्याय और धूर्तता से नहीं।
इस प्रकार की उपयुक्त कामनाएँ रखने वाला व्यक्ति कभी भी उनकी असफलाओं से दुखी नहीं होता और न कभी निराशा की स्थिति में पहुँचता है। अपने व्यक्तिगत सुखभोग के लिए विषयों की कामना परिणाम में ही नहीं, प्रारंभ में भी दुःखदायी होती है। आत्म-विकास और समाजकल्याण के लिए की हुई कामनाएँ आदि एवं अंत दोनों में ही सुखदायी एवं कल्याणकारी रहती हैं। जीवन में निराशा से बचने के लिए मनुष्य को कम से कम कामनाएँ रखना ही ठीक है। कामनाओं की अधिकता ही निराशा और पतन का कारण होती है।
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