धर्म एवं दर्शन >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
मनुष्य इच्छाएँ करे, यह उचित ही नहीं, आवश्यक भी है। इसके बिना प्राणी जगत निश्चेष्ट एवं जड़वत लगने लगेगा। किंतु इसका एक विषाक्त पहलू भी है, वह है इनकी अति और अनौचित्य। मनुष्य जीवन को क्लेशदायक परिणामों की ओर ले जाने में अति और अनुचित इच्छाओं का ही प्रमुख हाथ है। स्वामी रामतीर्थ कहा करते थे- ''मनुष्य के भय और चिंताओं का कारण उसकी अपनी इच्छाएँ ही हैं। इच्छाओं की प्यास कभी पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं हो पाती।'' बात भी ऐसी ही है। आज जो 100 रुपये पाता है वह कल 1000 रुपये की सोचता है और यदि यह इच्छा पूरी हो गई, तो दूसरे ही क्षण 1 लाख की कामना करने लग जाता है। इच्छा वह आग है, जो तृप्ति की आहुति से और प्रखर हो उठती है। एक पर एक अंधाधुंध इच्छाएँ यदि उठती रहें, तो मानव जीवन नारकीय यंत्रणाओं से भर जाता है।
अच्छी या बुरी जैसी भी इच्छा लेकर हम जीवन क्षेत्र में उतरते हैं वैसी ही परिस्थितियाँ, सहयोग भी जुटते चले जाते हैं। हमारी इच्छा होती है एम0 ए0 पास करें, तो स्कूल की शरण लेनी पड़ती है। अध्यापकों का साहचर्य प्राप्त करते हैं। पुस्तकें जुटाते हैं। तात्पर्य यह है कि इच्छाओं के अनुरूप ही साधन जुटाने की आदत मानवीय है पर यदि यही इच्छाएँ अहितकर हों, तो दुराचारिणी परिस्थितियाँ और बुरे लोगों का संग भी स्वाभाविक ही समझिए। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी कामना भले ही पूर्ण कर ले पर पीछे उसे निंदा, परिताप एवं बुरे परिणाम ही भोगने पड़ेंगे। व्यभिचारी व्यक्ति अपयश और स्वास्थ्य की खराबी से बचा रहे, यह असंभव है। चोर को अपने कुकृत्य का दंड न भोगना पड़े, यह हो नहीं सकता। तब आवश्यकता इस बात की होती है कि हम अपनी कामनाएँ ही न करें।
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