कहानी संग्रह >> कुमुदिनी कुमुदिनीनवल पाल प्रभाकर
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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है
पश्चाताप
आज मुझे बड़ी ग्लानि महसूस हो रही थी जब अपने द्वारा लगाया गया पेड़, अपने द्वारा सींचा गया पेड़ मुझे अपने ही हाथों से काटना पड़ा। मैं तो उसका प्रायश्चित भी नहीं कर सकता। क्या करूं? जो पेड़ हमारे सगे भाई-बन्धु हैं उनको इस प्रकार से मैं निर्जीव करूं। ये मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। मेरे साथ बीती घटना कुछ इस प्रकार से है-
सड़क के पास मिले गतवाड़े में जहां हम या मेरी मौसी का ईंधन और कूड़ा-करकट आदि डालती हैं वहां पर कुछ साल पहले एक कीकर उगी थी, वह भी काबुली। मैंने स्वयं उस कीकर को पाला-पोसा बड़ा किया। मैंने तो कभी उस कीकर की लौरी तक को नहीं छुआ था, तोड़ने की बात तो दूर थी। फिर एक दिन ऐसा आया जब वह जवानी की देहलीज पर कदम रखती है और जवानी में भरपूर होकर झूमने लगी। वो सड़क पर गुजरते हर वाहन को झूमते हुए ऐसी प्रतीत होती जैसे कि उसे हाथ उठाकर नमस्कार कह रही हो। उस कीकर की जड़ों से और भी बहुत-सी शाखाएं फूट आई। अब वह पूरी तरह से जवानी की दहलीज पर अपने कदम रख चुकी थी। मगर....
एक दिन ऐसा आया कि एक ब्राह्मण ने एक पैनी कुल्हाड़ी से उसके नीचे फूटी हुई शाखाएं काट डालीं और अपने ईंधन की बाड़ लगाने लगा। वह उस कीकर को काटने लगा। इतने ही में मेरी मां वहां पहुंच गई और उस ब्राह्मण को सुनाने लगी खरी-खोटी। ब्राह्मण भी बड़ा दुष्ट प्रवृत्ति का था। उसने कहा न तो मैं ईंधन दूंगा और साथ ही चेतावनी देते हुए कहा मैं इसको भी काटूंगा, छोडूंगा नहीं और गाली-गलौच करने लगा। तब मेरी मां बोली ईंधन तो रख ले पर इसको मत काटना। इसे हमने पाला है, पोसा है। इस तरह से समझाने बुझाने से वह मान गया।
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