कहानी संग्रह >> कुमुदिनी कुमुदिनीनवल पाल प्रभाकर
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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है
मन्दला
एक गाँव में एक बुढ़िया थी। वह कई दिनों से अपनी बहन के यहां जाने की सोच रही थी। सो एक दिन उसने निश्चय किया और चल पड़ी अपनी बहन के यहां। रास्ते में एक घना जंगल पड़ता था। रास्ता पैदल जाने का था और बिल्कुल सुनसान बीहड़, झाड़ झंखाड़, पथरीला, रेतीला रास्ता था वह। बुढ़िया बेचारी करती भी तो क्या? बहन से मिलने की इच्छा जो थी। अपनी बहन से मिलने के लिए वह हर जोखिम उठा सकती थी। बुढ़िया राम का नाम लेकर चल पड़ी।
रास्ते में बुढिया को एक गीदड़ मिला। वह गीदड़ उस बुढ़िया को देखकर कहने लगा- बुढ़िया-बुढ़िया, मैं तो तुझे खाऊंगा।
बुढिया डर गई मगर हिम्मत बांधकर कहने लगी- ना भाई, जीजी के जाऊं, मोटी-झोटी होके आऊं, जब खाइए।
गीदड़- चलो ठीक है। तुम जा सकती हो। पर जल्दी आना। मैं यहीं पर तुम्हारे रास्ते में मिलूंगा।
आगे चलने पर बुढिया को भालू मिला। वह भालू उस बुढिया को देखकर कहने लगा- बुढ़िया-बुढ़िया, मैं तो तुझे खाऊंगा।
बुढिया ने सोचा इससे कैसे बचा जाए। वो तो गीदड़ था सो मान गया। मगर उसने सोचा जो होगा सो देखा जाएगा। इसे भी वही बात कहती हूं जो गीदड़ को कही थी। सो वह कहने लगी - ना भाई, जीजी के जाऊं, मोटी-झोटी होके आऊं, जब खाइए।
यह सुनकर भालू ने कहा- चल ठीक है जा और हां जल्दी आना मैं यहीं पर तुम्हारा इंतजार करूंगा।
इस प्रकार से भालू ने भी उस बुढ़िया का रास्ता छोड़ दिया। अब बुढ़िया आगे चलने लगी। वह डरते-डरते आगे बढ़ी चली जा रही थी। तभी रास्ते में उसे एक शेर मिला। वह शेर उस बुढ़िया को देखकर कहने लगा- बुढ़िया-बुढ़िया, मैं तुझे खाऊंगा। बहुत दिनों के बाद आज मानव मिला है खाने को। आज मैं तुझे नहीं छोडूंगा।
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