जीवनी/आत्मकथा >> रवि कहानी रवि कहानीअमिताभ चौधुरी
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रवीन्द्रनाथ टैगोर की जीवनी
शांतिनिकेतन
लौटने के बाद 25 नवम्बर 1913 को उन्हें खबर मिली कि उन्हें साहित्य का
नोबल पुरस्कार मिला है। देश में खुशी की लहर दौड़ गई। शांतिनिकेतन में
उत्सव का माहौल छा गया। किसी भारतीय को पहली बार यह इनाम मिला था। पूरे
एशिया में वही पहले व्यक्ति थे। कलकत्ता से नामी-गिरामी लोग शांतिनिकेतन
पहुंचकर उन्हें बधाई देने लगे। बंगाल के कवि को विश्व कवि बनने का गौरव
मिला था। लेकिन उस दिन आम्रकुंज में कवि का भाषण बहुतों को पसंद नहीं आया।
कुछ दिन पहले जो लोग उनकी बढ़-चढ़कर आलोचना करते थे, उनमें से कुछ को सामने
पाकर उन्होंने कहा, ''इस सम्मान मदिरा को मैंने अपने होंठो से लगा जरूर
लिया है, लेकिन मैं इसका भरपूर आनंद नहीं ले पा रहा हूं।''
ठीक
उन्हीं दिनों दक्षिण अफ्रीका में वहां रहने वाले भारतीयों पर होने वाले
अत्याचारों को रोकने के लिए डरबन में बैरिस्टर मोहनदास कर्मचंद गांधी
सत्याग्रह आंदोलन चला रहे थे। वहां के हालात को अपनी आंखों से देखने के
लिए एंड्रूज और पियर्सन जा रहे थे। रवीन्द्रनाथ ने एंड्रूज को एक पत्र में
लिखा - ''आप गांधी जी तथा दूसरे साथियों के साथ अफ्रीका में हमारी ओर से
लड़ रहे हैं।'' गांधी जी का इसी चिट्ठी में कवि ने पहली बार जिक्र किया था।
बाद में दोनों के संबंध हमेशा के लिए गहरे बन गए।
कलकत्ता
विश्वविद्यालय के आशुतोष मुखोपाध्याय की अगुवाई में कवि को सम्मानित करने
का फैसला किया गया। उन्हें डी. लिट. की उपाधि दी गई। प्रमथ चौधुरी ने सन्
1914 में ''सबुजपत्र'' नाम से आम बोलचाल की भाषा में एक मासिक पत्रिका
निकाली। रवीन्द्रनाथ उसमें लिखने लगे। इसी के बाद रवीन्द्रनाथ की सभी गद्य
रचनाएं आम बोलचाल की भाषा में ही लिखी जाने लगी। रवीन्द्रनाथ साहित्य में
भी उनकी कविता की पुस्तक ''बलाका'' से नए युग की शुरूआत हुई। उनका ''घरे
बाइरे'' (घर बाहर) उपन्यास भी उन्हीं दिनों छपा।
सन् 1914 में
विश्वयुद्ध छिड़ गया। इस खबर से रवीन्द्रनाथ बहुत परेशान हुए। शांतिनिकेतन
के मंदिर में साप्ताहिक प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा, ''इस दुनिया में
पाप के खून से रंगी जो भयानक मूरत नजर आने लगी है, उस विश्व पाप को हमें
खत्म करना होगा।''
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