जीवनी/आत्मकथा >> रवि कहानी रवि कहानीअमिताभ चौधुरी
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रवीन्द्रनाथ टैगोर की जीवनी
सन् 1934 में ''चार
अध्याय'' नामक उनका उपन्यास
छपा। जिस पर काफी विवाद भी हुआ। ''दो बहनें'', ''मालंच'', ''बांसुरी'' के
बाद रवीन्द्रनाथ का यह आखिरी उपन्यास था। यह उपन्यास क्रांतिकारी आंदोलन
पर लिखा गया था। कुछ लोग इस बात का प्रचार कर रहे थे कि क्रांतिकारियों के
सरकारी दमन नीति के समर्थन में यह किताब लिखी गई थी, जबकि रवीन्द्रनाथ ने
इस उपन्यास में दो क्रांतिकारी युवक-युवती के प्रेम और उनकी असफलता को
दिखाया था। लेकिन बंगाल के कुछ रवीन्द्र विरोधी लोगों ने उस किताब के
विरूद्ध कुप्रचार करके माहौल बिगाड़ने का काम किया। लेकिन यह कुप्रचार
ज्यादा दिनों तक चला नहीं।
सन् 1935 में बंगीय
साहित्य परिषद के
रवीन्द्रनाथ के अठहत्तर वें जन्म दिन पर उन्हें सम्मानित किया। गौतम बुद्ध
के जन्मदिन के सिलसिले में कलकत्ता के धर्मराजिक चैत्यविहार की सभा में
रवीन्द्रनाथ को सभापति बनाया गया। उन्होंने अपने भाषण में कहा, ''मैं
जिन्हें अपने मन से श्रेष्ठ मानव समझता हूं, आज बैसाखी पूर्णिमा पर उन्हीं
के जन्म समारोह में अपना प्रणाम निवेदन करने यहां आया हूं।''
इस
समय यूरोप के आसमान में अकारण ही युद्ध के घने बादल नजर आने लगे। जर्मनी
में हिटलर के कारनामों से कवि बहुत चिंतित थे। ''प्रवासी'' पत्रिका के
सम्पादक और उनके दोस्त रमानंद चट्टोपाध्याय की एक चिट्ठी के जवाब में
उन्होंने लिखा था-''मैं हिटलर का समर्थन नहीं करता।'' इस समय यानी सन्
1935 में जापानी कवि नोगुची आए। उन्हें सम्मानित किया गया। मगर नोगुची के
साथ बाद में रवीन्द्रनाथ का विवाद भी हुआ। जापान युद्ध में उन्होंने जापान
को इसका दोषी ठहराया था, तथा जापान का समर्थन करने के लिए नोगुची की भी
निंदा की। कुछ दिन बाद रामकृष्ण परमहंस की जन्मशती समारोह के सिलसिले में
रवीन्द्रनाथ ने एक कविता लिखी। उस समारोह के धर्म महासम्मेलन के वे सभापति
भी बने।
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