जीवनी/आत्मकथा >> रवि कहानी रवि कहानीअमिताभ चौधुरी
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रवीन्द्रनाथ टैगोर की जीवनी
कुछ दिनों के बाद उनके
प्रिय भतीजे
सुरेन्द्रनाथ की मृत्यु हुई। उनका दुःख और बढ़ गया। कलिम्पोंग जाते वक्त
कलकत्ता में सुरेन्द्रनाथ से उनकी आखिरी बार भेंट हुई थी। कलिम्पोंग से वे
मंग्पू गए। उन्हें कलिम्पोंग में अपने प्रिय शिष्य कालीमोहन घोष की मृत्यु
की खबर मिली। श्री निकेतन को बनाने में उनका काफी योगदान था।
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अगस्त 1940 को रवीन्द्रनाथ को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की डी. लिट. की
उपाधि देने के लिए फेडरल कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश सर मॉरिस गयार और
सर्वपल्ली राधाकृष्णन आए। वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप
में आए थे। उन्हें जो सम्मान भेंट किया गया वह ऑक्सफोर्ड की रीति के
अनुसार लैटिन भाषा में था। जापान में रवीन्द्रनाथ ने अपना भाषण संस्कृत
में दिया।
उसके कुछ दिन पहले जर्मनी
ने पोलैंड पर हमला कर दिया
था। इस घटना पर रवीन्द्रनाथ ने एक विज्ञप्ति में कहा था, ''इस महासंकट के
समय जब सिर्फ कुछ देश ही नहीं, बल्कि सभ्यता का पूरा महल ही संकट में पड़
गया है, तब भारत का कर्त्तव्य एकदम स्पष्ट है। भारतवर्ष की सहानुभूति
पोलैंड के साथ है।'' दूसरा महायुद्ध शुरू होने के बाद ही उन्होंने डा.
अमियचंद्र चक्रवर्ती को एक और चिट्ठी में लिखा था, ''इस युद्ध में
इंग्लैंड और फ्रांस की विजय हो, मैं दिल से यही कामना करता हूं, क्योंकि
मानव इतिहास में फासीवाद और नाजीवाद के कलंक का भार अब और सहन नहीं होता।
दूसरे
महायुद्ध की बढ़ती आग से रवीन्द्रनाथ को पल भर के लिए भी चैन नहीं था।
हिटलर की फौजी ताकत उन्हें और चिंता में डाल रही थीं। उन्होंने 15 जून
1940 को कलिम्पोंग से, अमरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट को एक तार भेजकर, इस
महायुद्ध को रोकने के लिए कदम उठाने का निवेदन किया।
शांतिनिकेतन
में तुलसीदास की पुण्य तिथि पर आयोजित सभा में भाषण देते हुए उन्होंने कई
बातें कहीं, ''तुलसीदास ने राम के बारे में सारी जानकारियां वाल्मीकि के
रामायण से ली थीं, लेकिन उन चीजों में अपनी श्रद्धा-भक्ति को मिलाकर उसे
एकदम नई चीज बना दी। यही उनकी अपनी देन है। उसमें पुरातन का दोहराव नहीं
है बल्कि उनकी अपनी प्रतिज्ञा नजर आती है। उन्होंने अपने नई सोच से पुरानी
बातों में नयापन भर दिया। अपने भक्ति-भाव से उन्होंने रामायण को नए तरीके
से लिखा। साहित्य में उनकी यह बड़ी देन है।''
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