जीवनी/आत्मकथा >> रवि कहानी रवि कहानीअमिताभ चौधुरी
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रवीन्द्रनाथ टैगोर की जीवनी
19 सितम्बर 1941 को
रवीन्द्रनाथ अपने आखिरी सफर पर निकले। उनकी मंजिल कलिम्पोंग थी। उनका लेखन
रूका नहीं था। अचानक कलिम्पोंग में वे काफी बीमार पड़ गए। एक दिन बेहोश भी
हो गए। उनके साथ अकेली प्रतिभा देवी ही थीं। उनकी समझ में नहीं आया कि वे
क्या करें। रवीन्द्रनाथ जमींदारी के सिलसिले में बाहर थे। उन्हें तार भेजा
गया। प्रतिभादेवी ने टेलीफोन से प्रशांतचंद्र महलानवीस और अनिल कुमार चंद
को यह खबर दी। प्रशांतचंद्र कलकत्ता के तीन बड़े डाक्टरों को लेकर वहां
पहुंचे। शांतिनिकेतन से अनिल कुमार चंद, सुरेन्द्रनाथ कर और सुधाकांत
रायचौधुरी भी घबराकर कलिम्पोंग पहुंचे रथीन्द्रनाथ बीमारी की खबर पाकर
भागे-भागे आए।
रवीन्द्रनाथ को कलकत्ता
ले जाने के बाद उनके
स्वास्थ्य में सुधार हुआ। उनकी बीमारी की खबर पाकर गांधी जी ने भी अपने
सचिव महादेव देसाई को रवीन्द्रनाथ का हालचाल लेने भेजा। प्रतिभा देवी ने
लिखा है-''महादेव देसाई ने, अनिल कुमार के साथ पिताजी के कमरे में आकर
महात्मा जी की सहानुभूति उन्हें जताई। अनिल कुमार ने ऊंची आवाज में बोलते
हुए गुरूदेव को महादेव देसाई की बात समझाई। उस वक्त रवीन्द्रनाथ ठीक से
सुन नहीं पाते थे। उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। उनकी आंखों में मैंने
पहली बार आंसू देखे। खुद पर उन्हें इतना संयम था कि बड़े से बड़े शोक में भी
मैंने कभी उन्हें रोते हुए नहीं देखा, मगर आज जैसे बांध टूट गया था।''
रवीन्द्रनाथ
फिर शांतिनिकेतन में लौटे। उन दिनों वे ''रोग-शय्या'' की कविताएं लिख रहे
थे। इसके बाद उन्होंने 'आरोग्य' कविता संकलन की कविताएं लिखीं। उन दिनों
चीन से एक सद्भावना मिशन आया था। उसके नेता ताई ची ताओ थे। रवीन्द्रनाथ ने
बिस्तर पर लेटे हुए ही उनका स्वागत किया। रवीन्द्रनाथ ने उनके दुःख में
अपनी सहानुभूति जताई। उन लोगों की बहादुरी में उन्हें आशा की किरण नजर आई।
भारत और चीन के मुक्ति धर्म के आदर्श के प्रति रवीन्द्रनाथ को बड़ा भरोसा
था। उन्हें आशा थी कि एक दिन चीन अपने सनातन शांति के संदेश को फिर से इस
दुनिया में फैलाएगा।
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