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उपयोगी हिंदी व्याकरण

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हिंदी के व्याकरण को अधिक गहराई तक समझने के लिए उपयोगी पुस्तक

6. हिंदी भाषा-परंपरा


जिस रूप में आज हिंदी भाषा बोली और समझी जाती है वह खड़ी बोली का ही साहित्यिक रूप है, जिसका विकास मुख्यतः उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ। उत्तर और दक्षिण के लोगों के आपसी मेल के प्रभाव से हिंदी, दक्कनी हिंदी के रूप में विकसित हुई है। अरबी-फारसी में लिखी इस भाषा को दक्कनी उर्दू नाम मिला। मध्यकाल तक खड़ी बोली मुख्यतः बोलचाल की भाषा के रूप में ही व्यापक रूप से प्रयुक्त होती रही, साहित्यिक भाषा के रूप में नहीं। इसका कारण यह था कि उस युग में ब्रजभाषा और अवधी काव्य की भाषाएँ थीं। ब्रजभाषा को सूरदास ने, अवधी को तुलसीदास ने और मैथिली को विद्यापति ने चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया।

19वीं और 20वीं शताब्दी में जब जीवन का स्वरूप बदलना आरंभ हुआ तो इस बदलते समय में खड़ी बोली, जो जन-संपर्क की भाषा के रूप में सबसे अधिक व्यापक थी, सहज रूप से सर्वग्राह्य भाषा के रूप में उभर कर सामने आई। व्यापार, उद्योग, वैज्ञानिक आविष्कार संबंधित कार्य-कलापों के लिए गद्य की आवश्यकता थी और बोलचाल की भाषा आवश्यकता थी किंतु परंपरागत रूप से ब्रजभाषा तथा अवधी दोनों पद्य काव्य और साहित्य की भाषाएँ थीं। जनसंपर्क की भाषा के रूप में पहले से ही प्रचलित हो रही खड़ी बोली कालांतर के साथ इस कार्य को स्वाभाविक रूप से करते हुई विकसित होती रही है।

मुद्रण का अविष्कार, अंग्रेजी गद्य साहित्य का भारत में प्रसार, राजनीतिक चेतना का उदय, पत्र-पत्रिकाओं का प्रसार, लोकतंत्र की ओर सामूहिक रुझान, सामान्य जन तक संदेश पहुँचाने का आग्रह, शिक्षा का प्रसार आदि कई ऐसे अन्य कारण रहे, जिन्होंने मिलकर खड़ी बोली से विकसित हिंदी को न केवल उत्तर भारत की बहुप्रयुक्त भाषा के रूप में बल्कि समस्त देश की जनसंपर्क की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। इस बीच हिंदी गद्य को निखारने तथा इसे परिनिष्ठित रूप देने में भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद आदि अनेक विद्वानों का अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। जन समुदायों को संबोधित करने के लिए गांधी, तिलक, दयानंद सरस्वती तथा सुभाषचंद बोस आदि असंख्य नेताओं ने इसी हिंदी का प्रयोग किया। सन् 1949 में संविधान में संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकृत होकर इसने अब तक एक राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय आकार प्राप्त कर लिया है।

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