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हिंदी के व्याकरण को अधिक गहराई तक समझने के लिए उपयोगी पुस्तक
अध्याय 3
वर्तनी-विचार
भाषा के दो रूप होते हैं – उच्चरित रूप और लिखित रूप। उच्चरित रूप भाषा का
मूल रूप है, जबकि लिखित रूप गौण एवं आश्रित। उच्चरित रूप में दिया गया संदेश
संमुख अथवा समीप-स्थित श्रोताओं तक सीमित रहता है और क्षणिक होता है, अर्थात्
बोले जाने के तुरंत बाद अपने उस रूप में नष्ट हो जाता है, यह भिन्न बात है कि
यदि इलेक्ट्राँनिक माध्यमों से इसे रिकार्ड या सुरक्षित कर लिया जाये तो उसे
भविष्य के लिए सुरक्षित किया जा सकता है। इसके विपरीत लिखित रूप में दिया गया
संदेश अपने सर्जन के समय से ही भविष्य में प्रयोग किये जाने के उद्देश्य दिया
जाता है। यह लिखित रूप स्थायी और व्यापक बना रहे इसके लिए आवश्यक है कि
लेखन-व्यवस्था (लिपिचिह्न, लिपिचिह्नों के संयोजन, शब्द स्तर की वर्तनी,
विराम चिह्न आदि) लंबे समय तक एक-से बने रहें, चाहे उच्चारण समय के साथ-साथ
कम-ज्यादा बदल भी जाए।
वर्तनी : वर्तनी का शाब्दिक अर्थ है वर्तन यानी कि अनुवर्तन करना
अर्थात् पीछे-पीछे चलना। लेखन व्यवस्था में वर्तनी शब्द स्तर पर शब्द की
ध्वनियों का अनुवर्तन करती है। दूसरे शब्दों में, शब्द विशेष के लेखन में
शब्द की एक-एक करके आने वाली ध्वनियों के लिए लिपिचिह्नों के क्या रूप हों और
उनका संयोजन कैसा हो, यह वर्तनी (वर्ण संयोजन = अक्षरी) का कार्य है।
पिछली शताब्दी के आरंभ में हिंदी गद्य का प्रयोग जब दैनिक कार्यों और
ज्ञान-विज्ञान के प्रसार के लिए ज़ोरों से होने लगा तो लेखकों/संपादकों ने
स्थानीय परंपराओं और रूढ़ियों के अनुसार शब्दों की वर्तनियों को अपनाया और
वर्तनी में थोड़ी बहुत अनेक रूपता दिखाई पड़ने लगी। भारत सरकार ने इस प्रकार
की अस्थिरता को दूर करने के लिए तथा वर्तनी की एकरूपता के लिए कुछ निर्णय
लिए, जिन्हें आगे दिया जा रहा है –
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