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अनुस्वार तथा अनुनासिकता-चिह्न (चंद्रबिंदु)
अनुस्वार (ं) और अनुनासिकता चिह्न (ँ) दोनों प्रचलित रहेंगे।
(क) संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचमाक्षर के बाद
सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो, तो एकरूपता और मुद्रण लेखन की
सुविधा के लिए अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए; जैसे – गंगा, चंचल, ठंडा,
संध्या, संपादक आदि में पंचमाक्षर के बाद उसी वर्ग का वर्ण आगे आता है, अतः
पंचमाक्षर पर अनुस्वार का प्रयोग होगा (गङ्गा, चञ्चल, ठण्डा, सन्ध्या,
सम्पादक का नहीं)। यदि पंचमाक्षर दोबारा आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में
नहीं बदलेगा जैसे वाङ्मय, अन्य, सम्मेलन, सम्मति, उन्मुख आदि। अतः वांमय,
अंय, अंन, संमेलन, संमति, उंमुख आदि रूप ग्राह्य नहीं हैं।
(ख) चंन्द्रबिंदु के बिना प्रायः अर्थ में भ्रम की गुंजायश
रहती है; जैसे – हंस : हँस, अंगना : अँगना आदि में। अतएव ऐसे भ्रम को दूर
करने के लिए चंद्र बिंदु का प्रयोग से छपाई आदि में बहुत कठिनाई हो और
चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु (अनुस्वार चिह्न) का प्रयोग किसी प्रकार का
भ्रम उत्पन्न करे, वहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिदु (अनुस्वार चिह्न) की छूट
दे दी गई है; जैसे-नहीं, में, मैं।
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