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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।31।।

तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्षत्रिय के लिये धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है।।31।।

आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक आधारों पर तर्क देने के बाद अब भगवान् कृष्ण अर्जुन को व्यावहारिक रूप से चेताते हैं। भगवान् अर्जुन को स्मरण करवाते हैं कि क्षत्रिए होने के नाते युद्ध में लोगों की अंग और जीवन हानि को देखने का अभ्यस्त होने के कारण और अर्जुन को एक योद्धा के नाते इस सम्बन्ध में विशेष प्रशिक्षण मिला है। इस महायुद्ध से पहले भी अर्जुन ने कई युद्ध किये है, तब तो उसे किसी प्रकार भय नहीं अनुभव हुआ था। इस प्रकार अपने क्षत्रिय धर्म के कारण उसे किसी प्रकार के भय का अनुभव नहीं होना चाहिए।

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।32।।

हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं।।32।।

भगवान् कृष्ण अर्जुन को याद दिलवाते कि क्षत्रिय योद्धा के लिए युद्ध में वीरगति पाना तो सौभाग्य की बात होती है। समाज और अपने देश की रक्षा करने वाला व्यक्ति जब इस कार्य में जुटता है तो उसकी कार्य जीवन का सर्वोत्तम क्षण वह होता है, जबकि उसे युद्ध में वीरगति मिले। हममें से हर व्यक्ति इस योग्य नहीं होता कि वह अपने समाज, कुल अथवा देश की रक्षा करने का भार अपने ऊपर ले सके। परंतु जो लोग यह जीवन-पद्धति अपनाते हैं, उनके जीवन में आने वाला यह क्षण इन योद्धाओं के लिए परम सौभाग्य की बात होती है।

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