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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।33।।

किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।।33।।

इस प्रकार मिले हुए अवसर को खोकर यदि अर्जुन युद्ध से पलायन करता है तब निश्चित रूप से वह अपयश का भागी बनेगा। क्षत्रिय योद्धा का स्वाभाविक धर्म होता है, युद्ध में लड़ते हुए सही पक्ष के लोगों की रक्षा करना। यदि सही अवसर पर कोई योद्धा युद्ध से पलायन कर जाये तो धर्म के पक्ष के लिए युद्ध कौन करेगा। इस प्रकार न तो समाज की रक्षा हो सकेगी और न ही धर्म की। इस परिस्थिति में लोगों का विश्वास खोने वाले योद्धा की समाज कैसे प्रशंसा कर सकता है। वह स्वयं भी अयोग्य हो जाने के कारण सदा आत्म-ग्लानि का अनुभव करते हुए पापों को भोगेगा।


अकीर्तिं चापि भूतानि
कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-
र्मरणादतिरिच्चते।।34।।

तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहनेवाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है।।34।।

इस प्रकार युद्ध से पलायन किये हुए योद्धा की अपकीर्ति लम्बे समय तक रहेगी। जैसे पृथ्वीराज की पराजय का कारण बने हुए जयचन्द का लोग आज भी वंशविनाशी व्यक्ति के रूप में स्मरण करते हैं। स्वाभिमानी और संसार में जिन लोगों को मान होता है उनके लिए यह स्थिति सर्वथा असह्यनीय है।

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