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जीवनी/आत्मकथा >> शेरशाह सूरी

शेरशाह सूरी

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10546
आईएसबीएन :9781610000000

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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...


सैन्य संगठन

शेरशाह ने एक विशाल सेना की सहायता से विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। अब उस राज्य को सुरक्षित बनाए रखने के लिए भी सेना की आवश्यकता थी। अफगानों में कबाइली भावना अति प्रबल थी और शेरशाह इस भावना को कुचलना नहीं चाहता था। अतएव सेना का संगठन कबीलाई ढंग पर बना रहा। प्रत्येक कबीले की अपनी अलग सेना होती थी और उस कबीले का मुखिया ही उसका संचालन करता था। शेरशाह जानता था कि कबीले के मुखिया या सामंत को कैसे अनुशासन और नियंत्रण में रखे। उसने सेना को देश की आवश्यकता के अनुसार बांट रखा था। सोलह छावनियों का प्रमाण मिलता है पर कदाचित वे अधिक रही होंगी। प्रत्येक टुकड़ी बारी-बारी से शेरशाह के निरीक्षण हेतु आया करती थी।

कबीलाई सेना के अलावा शेरशाह के पास अपनी सेना भी थी। उसकी सेना में डेढ़ लाख घुड़सवार, 25 हजार पदाति, बंदूकची और तीरंदाज थे। इसके अतिरिक्त 5 हजार हाथी और एक तोपखाना भी था। यह सेना किसी भी क्षण उसके साथ युद्ध में जाने के लिए तैयार रहती थी। इस प्रकार पूरी सेना की संख्या लगभग चार लाख थी। इस संख्या में प्रतिवर्ष वृद्धि होती थी। राज्य की स्थापना के बाद सेना का मुख्य कार्य रह गया था- राज्य में विद्रोहों का दमन करना, विद्रोही जमीदारों को नियंत्रित करना और राज्य की सीमाओं के विस्तार के लिए नए-नए क्षेत्रों को विजित करना।

सामंतो से जैसा काम लेना होता था उसी के अनुरूप उसे घुड़सवार रखने की अनुमति थी। सबसे अधिक 30 हजार घुड़सवार हैवत खान नियाजी नामक एक सामंत के पास थे। इसकी सहायता से उसने रोहतास दुर्ग के आसपास के सारे विद्रोहियों का दमन किया और समस्त प्रदेश तथा कश्मीर को उपद्रवियों से बचाए रखा। उसके एक अन्य सेनापति फाथगंज खान के पास भी दियालपुर और मुलतान के दुर्गों में स्थित विशाल सैनिक टुकडियां थीं। शेरशाह के खजाने का मुख्य भाग मुलतान के दुर्ग में गड़ा हुआ था। उसका प्रसिद्ध सेनापति हमीद खां मिलवत के दुर्ग में नायक था और उसके पास विशाल सैनिक टुकडी थी जिसकी सहायता से उसने नगरकोट, ज्वाल, धिधावल और जम्मू की पहाडियों के दुर्गों की इतनी सुव्यवस्था से रक्षा की थी कि यहां के सारे विद्रोह शांत कर दिए गए और यहां की पहाड़ी जातियों से बिना किसी कार्रवाई के राजस्व प्राप्त होने लगा।

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