नई पुस्तकें >> गीले पंख गीले पंखरामानन्द दोषी
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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
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चाँदनी के सिहरते हुए श्वास में
दाह उमड़ा बड़ा, चाँद सहमा खड़ा,
दर्द से रात करवट बदलती रही,
तब कहीं एक जा कर खिली मधुकली,
चाँदनी के सिहरते हुए श्वास में।
पर कली के खुले जब गुलाबी नयन,
धूल में फूल के शव दिखाई पड़े;
आह भर कर नज़र जब उठी उस तरफ़
थे कुटिल शूल के क्रूर पहरे खड़े;
मन मसोसा कली ने सिहर रह गई,
क्या बदा भाग्य में बस यही अंत है !
एक भौंरा तभी आ लगा झूमने --
री, सहेली, कठिन प्रीत का पंथ है
आँसुओं में मधुर मुसकराना तुझे,
आग पीनी पड़ेगी यहाँ प्यास में।
चाँदनी के सिहरते हुए श्वास में।
प्यास लेकिन जगी जिस अधर पर नहीं,
मान लेगा उसे कौन जीवित अधर ?
आग पीती चली जो नहीं ज़िन्दगी --
कह उसे कौन देगा उफनती लहर ?
है अधर को, लहर को वृथा बाँधना,
चाहते रोकना क्यों उठे ज्वार को;
ये नियम के, धरम के बड़े तट सबल --
बाँध पाते न लेकिन सहज प्यार को।
आस घायल जहाँ तोड़ती दम वहाँ
प्यार पलता सदा मौन विश्वास में।
चाँदनी के सिहरते हुए श्वास में।
एक खंडहर पड़ा था कहीं अधगिरा,
एक पीपल वहाँ सिर उठाने लगा;
कोटरों में उसी की धरे चार तृण--
नीड़ नन्हा विहग एक बनाने लगा;
मस्त गाने लगा, सिर उठाने लगा,
मैं धरा का, गगन का सजीला सजन;
बात बीते दिनों की गई याद आ
वृद्ध खंडहर कराहा--"अरे, बात सुन,
चार दिन की हवा है यहाँ ज़िन्दगी,
कटु रुदन पल रहा है मधुर हास में।"
चाँदनी के सिहरते हुए श्वास में।
चोट खाई जवानी चिहुँक कर उठी,
भौंह दोनों तनी, फिर कहा रोष में--
"इस वसन्ती हवा की सुखद गोद पा,
रह सका है भला कौन कब होश में !
चार दिन की हवा है अगर ज़िन्दगी,
चार दिन चैन से क्यों भला ना जियूँ ?
मस्त हो झूम जी भर मैं क्यों ना पियूँ ?
मस्त हो झूम जी भर मैं क्यों न पियूँ ?
कल गरल भी पियूँगा, मगर आज तो
ढालने दो सुधा प्राण, मधुमास में।"
चाँदनी के सिहरते हुए श्वास में।
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