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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
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सुबह की बाँग
समय के मुर्ग ने दी है सुबह की बाँग
खोलो आँख,
देखो, स्वर्ण किरणों ने भरी है आसमानी माँग !
यह बाँग,
जो देती सुनाई
हर दरो-दीवार से,
मीनार से
कोटों-कँगूरों से
कि जिस में जागरण का स्वर मचलता है,
गवाही दे रही है
आज केवल सन, महीना, दिन नहीं बदला,
किन्तु, पूरा युग
बहुत बेचैन हो करवट बदलता है !
तो यह है जागरण-बेला
यह अपने साथ लाई है
कुँआरी-सी,
लजाई-सी,
हज़ारों मधुमयी मुसकान,
जीवन-दायिनी मुसकान !
आज पूरब के अधर पर है कहीं बिरहा,
कहीं कजरी, कहीं मलहार की मृदु तान !
पर न भूलो, इन निरे निर्दोष गीतों को
कुचलने के इरादे, दूर पश्चिम के हृदय में पल रहे हैं।
किस लिए ये एटमी बम ढल रहे हैं ?
यह परीक्षण ही सही,
पर किस लिए रॉकेट आखिर चल रहे हैं ?
ये बदल तेवर जुटे हैं क्यों क्षितिज पर
विद्यु-पंखी तेज वायुयान ?
न भूलो, आज
तुम को घेरने को आ रहे हैं
कुछ कुटिल तूफ़ान।
तुम्हें उन को हटाना है,
किरण-शर से
क्षितिज के पार वाले
धुन्ध को है भेदना,
जड़ से मिटाना है।
जमाना अब नहीं है
अधमुँदी, बेहोश, पी की याद में डूबी,
अलस मृदु, मौन पलकों का,
किसी के वक्ष पर अठखेलियों में मस्त
अलकों का ;
ये बातें हैं अँधेरे की
उजाले में ज़रा आओ,
किरण-गंगा धरा पर जो उतरती है,
उसे पथ दो,
उसे मन का,समर्पण का,
हृदय के शुद्ध भावों का
सजीला वेगमय रथ दो !
न काँटा हो कहीं पर भी विषमता का
चमन में फूल समता का !
हिमालय की हिमावृत चोटियों से
आज यह आवाज़ देनी है -
कि जागा एशिया, जागा नया इनसान
जिस को हर थके पर में नई परवाज़ देनी है !
उठो!
स्वागत करो इसका कि जो युग आज आया है,
कि कैसे सो सकोगे तुम
तुम्हारे द्वार पर अब जुड़ गया दायित्व का मेला,
कि खोलो आँख साथी,
आ गई है जागरण-बेला।
समय के मुर्ग ने दी है सुबह की बाँग
देखो, स्वर्ण किरणों ने भरी है आसमानी माँग !
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