गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
अध्याय २६
पत्नी सहित गौतम की आराधना से संतुष्ट हो भगवान् शिव का उन्हें दर्शन देना, गंगा को वहाँ स्थापित करके स्वयं भी स्थिर होना, देवताओं का वहाँ वृहस्पति के सिंह राशि पर आने पर गंगाजी के विशेष माहात्म्य को स्वीकार करना, गंगाका गौतमी या गोदावरी नामसे और शिव का त्रयम्बक ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात होना तथा इन दोनों की महिमा
सूतजी कहते हैं- पत्नीसहित गौतम ऋषि के इस प्रकार आराधना करनेपर संतुष्ट हुए भगवान् शिव वहाँ शिवा और प्रमथगणों के साथ प्रकट हो गये। तदनन्तर प्रसन्न हुए कृपानिधान शंकर ने कहा- 'महामुने! मैं तुम्हारी उत्तम भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम कोई वर माँगो।' उस समय महात्मा शम्भु के सुन्दर रूप को देखकर आनन्दित हुए गौतम ने भक्तिभाव से शंकर को प्रणाम करके उनकी स्तुति की। लंबी स्तुति और प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर वे उनके सामने खड़े हो गये और बोले- 'देव! मुझे निष्पाप कर दीजिये।'
भगवान् शिवने कहा- मुने! तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो और सदा ही निष्पाप हो। इन दुष्टों ने तुम्हारे साथ छल किया। जगत् के लोग तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो जाते हैं। फिर सदा मेरी भक्ति में तत्पर रहनेवाले तुम क्या पापी हो? मुने! जिन दुरात्माओं ने तुम पर अत्याचार किया है वे ही पापी, दुराचारी और हत्यारे हैं। उनके दर्शन से दूसरे लोग पापिष्ठ हो जायँगे। वे सब- के-सब कृतघ्न हैं। उनका कभी उद्धार नहीं हो सकता।
महादेवजी की यह बात सुनकर महर्षि गौतम मन-ही-मन बड़े विस्मित हुए। उन्होंने भक्तिपूर्वक शिव को प्रणाम करके हाथ जोड़ पुन: इस प्रकार कहा।
गौतम बोले- महेश्वर! उन ऋषियों ने तो मेरा बहुत बड़ा उपकार किया। यदि उन्होंने यह बर्ताव न किया होता तो मुझे आपका दर्शन कैसे होता? धन्य हैं वे महर्षि, जिन्होंने मेरे लिये परम कल्याणकारी कार्य किया है। उनके इस दुराचार से ही मेरा महान् स्वार्थ सिद्ध हुआ है।
गौतमजी की यह बात सुनकर महेश्वर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने गौतम को कृपादृष्टि से देखकर उन्हें शीघ्र ही यों उत्तर दिया।
शिवजी बोले- विप्रवर! तुम धन्य हो, सभी ऋषियों में श्रेष्ठतर हो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। ऐसा जानकर तुम मुझसे उत्तम वर माँगो।
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