मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड) रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।
रति को वरदान
जगतमें बड़ा हाहाकार मच गया। देवता डर गये, दैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुखको याद करके चिन्ता करने लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गये॥४॥
छं०-जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई।
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई।
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही।
योगी निष्कंटक हो गये, कामदेवकी स्त्री रति अपने पतिकी यह दशा सुनते ही मूञ्छित हो गयी। रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँतिसे करुणा करती हुई वह शिवजीके पास गयी। अत्यन्त प्रेमके साथ अनेकों प्रकारसे विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गयी । शीघ्र प्रसन्न होनेवाले कृपालु शिवजी अबला (असहाया स्त्री) को देखकर सुन्दर (उसको सान्त्वना देनेवाले) वचन बोले।
दो०- अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।
बिनु बपुब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥८७॥
बिनु बपुब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥८७॥
हे रति ! अब से तेरे स्वामीका नाम अनङ्ग होगा। वह बिना ही शरीरके सबको व्यापेगा। अब तू अपने पतिसे मिलनेकी बात सुन ॥ ८७ ॥
जब जदुबंस कृष्न अवतारा ।
होइहि हरन महा महिभारा॥
कृष्न तनय होइहि पति तोरा ।
बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥
होइहि हरन महा महिभारा॥
कृष्न तनय होइहि पति तोरा ।
बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥
जब पृथ्वीके बड़े भारी भारको उतारनेके लिये यदुवंशमें श्रीकृष्णका अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्र) के रूपमें उत्पन्न होगा। मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा॥१॥
रति गवनी सुनि संकर बानी ।
कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
देवन्ह समाचार सब पाए ।
ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए।
कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
देवन्ह समाचार सब पाए ।
ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए।
शिवजीके वचन सुनकर रति चली गयी। अब दूसरी कथा बखानकर (विस्तारसे) कहता हूँ। ब्रह्मादि देवताओंने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठको चले ॥२॥
सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता ।
गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा ।
भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥
गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा ।
भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥
फिर वहाँसे विष्णु और ब्रह्मासहित सब देवता वहाँ गये जहाँ कृपाके धाम शिवजी थे। उन सबने शिवजीकी अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गये ॥३॥
बोले कृपासिंधु बृषकेतू ।
कहहु अमर आए केहि हेतू॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी ।
तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥
कहहु अमर आए केहि हेतू॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी ।
तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥
कृपाके समुद्र शिवजी बोले-हे देवताओ! कहिये, आप किसलिये आये हैं? ब्रह्माजीने कहा-हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ॥४॥
दो०- सकल सुरन्ह के हृदय अस संकर परम उछाहु।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥८८॥
हे शङ्कर ! सब देवताओंके मनमें ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखोंसे आपका विवाह देखना चाहते हैं। ८८ ॥
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