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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


हतो वा प्राप्स्यसिस्वर्गंजित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।37।।

या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।।37।।

भगवान् कहते हैं, हे अर्जुन एक क्षत्रिय की भाँति युद्ध करते हुए दो संभावनाएँ हैं, या तो तुम युद्ध में हत होकर स्वर्ग को जाओगे अथवा इस संग्राम को जीतने के बाद इस राज्य का तुम उपभोग करोगे। ये दोनों संभावनाएँ एक क्षत्रिय योद्धा के लिए सदैव वाँछित होती हैं, इसलिए तुम संशय छोड़कर युद्ध के लिए निश्चय बद्ध हो जाओ।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।38।।

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।।38।।

जब कोई योद्धा युद्ध में प्रस्तुत होने से पहले अपनी जय अथवा पराजय के विषय में विचार करने लगता है, तो उसका सारा ध्यान मनोवांछित फल मिलेगा अथवा नहीं इसी चिंता में लगा रहता है। इस प्रकार योद्धा का ध्यान अपने युद्ध-कौशल, शत्रु की रणनीतियों का प्रतिकार करने में न होकर फल की चिंता में लगा रहता है। इस विपरीत धारणा से उस योद्धा का युद्ध विजय करना कठिन हो जाता है। इसके विपरीत जब योद्धा युद्ध में मिलने वाली जय-पराजय, युद्ध से होने वाले लाभ-हानि तथा युद्ध के कारण होने वाले सुख-दुःख से अपना ध्यान विरक्त कर और इन विपरीत परिस्थितियों को एक जैसा समझ कर युद्ध के लिए तैयार हो जाता है तो वह उसकी स्थिति सुदृढ़ हो जाती है। भगवान् अर्जुन से कहते हैं, यदि तुम स्थिर मन से युद्ध करोगे तो उसके कारण तुम पर कोई मानसिक बोझ नहीं पड़ेगा और तुम किसी पाप के भागी नहीं बनोगे।

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