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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रुणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थं कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।39।।

हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोग1 के विषय में कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग2 के विषय में सुन - जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बन्धन को भलीभांति त्याग देगा अर्थात् सर्वथा नष्ट कर डालेगा।।39।।

भगवान् कहते हैं कि हे पार्थ, बुद्धिवादी लोग बौद्धिक स्तर पर दिये गये कारणों में स्वभावतः अधिक रुचि रखते हैं। इसलिए मैंने तुम्हें इस दृष्टिकोण से बताया। इसी विचार श्रँखला में अब इन बातों को कर्मयोग के संदर्भ में सुनो। इस कर्मयोग के ज्ञान से तुम कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाओगे।

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।40।।

इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान् भय से रक्षा कर लेता है।।40।।

ज्ञानयोग अथवा बुद्धि के विचार की वस्तुएँ, जैसे जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख आदि जिनके आरंभ और अंत आदि के विषय में विचार किया जाता है। इनके विपरीत कर्मयोग को समझने के लिए बौद्धिक विचार और आरंभ-अंत आदि को समझने की कोई गंभीर आवश्यकता नहीं होती है। इसी प्रकार कर्म में प्रवृत्त व्यक्ति को फल के विचार की सुधि नहीं रह जाती। कर्मयोग की विशेषता है कि इसमें प्रवृत्त व्यक्ति को जन्म-मृत्यु जैसी समस्याओँ का विचार और भय नहीं रह जाता है।

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