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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।41।।

हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किन्तु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती हैं।।41।।

भगवान् कृष्ण कर्मयोग का प्रधान लक्षण अर्जुन को बताते हैं। वे कहते हैं कि इस भौतिक जगत् में कर्मों में प्रवृत्त प्राणी एक समय में एक निश्चय स्थिर करके तत्पश्चात् उस कार्य को पूरा करता है। इस जगत् में होने वाले सभी कार्यों में अपेक्षित सफलता के लिए यह विधि सभी लोग अपनाते हैं। इस सरल नियम को सभी जानते हैं, लेकिन जिनकी बुद्धि किसी एक निश्चय पर टिकी नहीं रह पाती, वे बार-बार अपने निर्णय बदलते रहते हैं, इसके फलस्वरूप वे कई निश्चयों के पीछे भटकते हुए अपनी कार्य-शक्ति इधर-उधर लगाकर असफलता के भागी बनते हैं।

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थं नान्यदस्तीति वादिनः।।42।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।43।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते।।44।।

हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है - ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्मरूप कर्मफल देनेवाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करनेवाली है, उस वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं; उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती।।42-44।।

इस जगत् में जो लोग सांसारिक क्रिया-कलापों में ही व्यस्त रहते हैं, जिनका मन केवल स्वादिष्ट भोजन, अधिक-से-अधिक धन कमाने और उसका उपभोग करने में ही लगा रहता है। जो अपने सारे कार्य मनोवांछित फलों की इच्छा और उपलब्धियों के लिए करते हैं। संसार के सुखों के अतिरिक्त स्वर्ग की प्राप्ति ही जिनके जीवन का अंतिम ध्येय होता है। ऐसे लोग स्वयं जो जानते हैं उसी की शिक्षा अन्य लोगों को भी देते हैं। आज के सामाजिक जीवन में लगभग सभी लोग इसी ज्ञान को शिक्षा मानते हैं। उनके अनुसार अच्छे जीवन के लिए व्यवस्थित और जीविकोपयोगी शिक्षा का साधन लेकर अधिक से अधिक धन कमाना और अपने बच्चों को भी वही शिक्षा देना ही जीवन का उच्चतर उद्देश्य है। इस प्रकार वे सभी लोग इसी प्रकार की शिक्षा एक दूसरे को देकर अपने जीवन को सफल मानने और बनाने को ही जीवन की उच्चावस्था कहते हैं। देखने में ऐसा लगता है कि जैसे इस प्रकार के सभी लोग बुद्धिवादी और समाज के स्तम्भ हैं, परंतु वास्तव में वे पशुओं से कुछ ही ऊपर के स्तर का जीवन जीने के लिए बाध्य हैं, क्योंकि उनकी बुद्धि इस जीवन को पालने पोसने अथवा अधिकाधिक धनोपार्जन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सोच पाती। इन सभी कार्यों से इन लोगों का जीवन आप्लावित होने के कारण इन लोगों की बुद्धि परमात्मा साधना में निश्चित रूप से ठहर नहीं पाती।

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