मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2महर्षि वेदव्यास
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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।45।।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।45।।
हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप
समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करनेवाले हैं; इसलिये तू उन भोगों
एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वों से रहित, नित्यवस्तु
परमात्मा में स्थित, योग1 – क्षेम को2 न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्त:-करणवाला
हो।। 45।।
सामान्यतः सभी व्यक्ति सत्व, रज और तमस गुणों से प्रेरित होकर अपने कार्य-कलाप निर्धारित करते हैं। इन गुणों के प्रभाव से कोई समाज सेवा का कार्य करता है, कोई प्रजा-पालन अथवा नियंत्रण के कार्य में अपना ध्यान लगाता है। जो धन अथवा बल की आकांक्षा नहीं रखते हैं, उनका मन भोजन और शारीरिक सुखों में ही रमा रहता है। वेदों के अधिकांश भाग में मनुष्य जीवन के योगक्षेम और उसको सुरक्षित बनाए रखने के लिए विविध प्रकार की ऋचाएँ हैं, भगवान् अर्जुन को स्मरण दिलाते हैं कि इस प्रकार की सभी विचारधाराएँ व्यक्ति को उसकी रुचि के भोगों में ही उलझाए रहती हैं। अधिकांश व्यक्ति इसी अवस्था में अपना जीवन जीते रहते हैं और जीवन-चक्र में ऊपर-नीचे आते जाते रहते हैं। इसलिए तुम इन सभी प्रकार के भोगों और उनके साधनों में विरक्त होकर, उन्हें निस्पृह भाव से देखते हुए नित्यवस्तु परमात्मा में सदा स्थित रहो। जीवन मात्र जीविकोपार्जन और किसी प्रकार जीवन-यापन के लिए मात्र न होकर इस जीवन की उच्चावस्था का वास्तविक तत्त्व ज्ञान करना है। हे अर्जुन तुम्हें स्वाधीन होकर इन सभी गुणों से विरक्त होकर तत्त्वज्ञान का अनुसंधान करना है।
(1. अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।
2. प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।)
सामान्यतः सभी व्यक्ति सत्व, रज और तमस गुणों से प्रेरित होकर अपने कार्य-कलाप निर्धारित करते हैं। इन गुणों के प्रभाव से कोई समाज सेवा का कार्य करता है, कोई प्रजा-पालन अथवा नियंत्रण के कार्य में अपना ध्यान लगाता है। जो धन अथवा बल की आकांक्षा नहीं रखते हैं, उनका मन भोजन और शारीरिक सुखों में ही रमा रहता है। वेदों के अधिकांश भाग में मनुष्य जीवन के योगक्षेम और उसको सुरक्षित बनाए रखने के लिए विविध प्रकार की ऋचाएँ हैं, भगवान् अर्जुन को स्मरण दिलाते हैं कि इस प्रकार की सभी विचारधाराएँ व्यक्ति को उसकी रुचि के भोगों में ही उलझाए रहती हैं। अधिकांश व्यक्ति इसी अवस्था में अपना जीवन जीते रहते हैं और जीवन-चक्र में ऊपर-नीचे आते जाते रहते हैं। इसलिए तुम इन सभी प्रकार के भोगों और उनके साधनों में विरक्त होकर, उन्हें निस्पृह भाव से देखते हुए नित्यवस्तु परमात्मा में सदा स्थित रहो। जीवन मात्र जीविकोपार्जन और किसी प्रकार जीवन-यापन के लिए मात्र न होकर इस जीवन की उच्चावस्था का वास्तविक तत्त्व ज्ञान करना है। हे अर्जुन तुम्हें स्वाधीन होकर इन सभी गुणों से विरक्त होकर तत्त्वज्ञान का अनुसंधान करना है।
(1. अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।
2. प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।)
यावानर्थ उपदाने सर्वत: सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।46।।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।46।।
सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जानेपर छोटे जलाशय में
मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्त्व से जाननेवाले ब्राह्मण का
समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है।।46।।
मनुष्य सामान्यतः जीवन पर्यन्त इस जीवन का स्तर सुधारने के लिए कार्य करता रहता है। जीवन में इतनी छोटी-बड़ी आवश्यकताएँ हैं कि सारा जीवन यही कार्य चलता रहता है। परंतु किंचित परिस्थितियों में मनुष्य का ध्यान परमतत्त्व पर पहुँच जाता है और वह परमात्म तत्त्व की साधना में जुट जाता है। साधना करके उपरान्त जैसे-जैसे परमतत्त्व का वास्तविक रूप उसे स्पष्ट होता जाता है, तब उसे सामान्य जीवन की इन वस्तुओं में रुचि कम होती जाती है। यहाँ तक ब्रह्म तत्त्व को ठीक से जान लेने पर जीवन की बाकी सभी विद्यायें तत्त्वहीन लगने लगती हैं।
मनुष्य सामान्यतः जीवन पर्यन्त इस जीवन का स्तर सुधारने के लिए कार्य करता रहता है। जीवन में इतनी छोटी-बड़ी आवश्यकताएँ हैं कि सारा जीवन यही कार्य चलता रहता है। परंतु किंचित परिस्थितियों में मनुष्य का ध्यान परमतत्त्व पर पहुँच जाता है और वह परमात्म तत्त्व की साधना में जुट जाता है। साधना करके उपरान्त जैसे-जैसे परमतत्त्व का वास्तविक रूप उसे स्पष्ट होता जाता है, तब उसे सामान्य जीवन की इन वस्तुओं में रुचि कम होती जाती है। यहाँ तक ब्रह्म तत्त्व को ठीक से जान लेने पर जीवन की बाकी सभी विद्यायें तत्त्वहीन लगने लगती हैं।
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