मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2महर्षि वेदव्यास
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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मां ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।47।।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मां ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।47।।
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं।
इसलिये तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न
हो।।47।।
गीता का मुख्य विषय वस्तु कर्मयोग ही है। सामान्यतः हर कार्य हम किसी विशेष फल की आंकाक्षा से ही करते हैं। जिसे हम सामान्य भाषा में लक्ष्य साधना कहते हैं। बचपन से ही बच्चों को सिखाया जाता है कि हर परीक्षा में अच्छे अंक लाओ, अच्छी नौकरी के लिए प्रयास करो। जीवन में व्यवसाय को सफल बनाओ। नाना प्रकार के प्रयासों से अधिकाधिक धनार्जन करो। स्वयं अर्जुन के बारे में हम सभी जानते हैं कि उसने इच्छा पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के विद्याभ्यास और तप किये। चिड़िया को बाण से भेदने की कथा सर्वविदित है, इस कथा में भी फल की इच्छा ही अर्जुन की प्रेरणा का स्त्रोत है। इन सभी प्रयासों के पीछे कर्मफल हमेशा निहित रहा। इसी प्रकार सामान्य व्यवहार में कर्मफल की इच्छा ही सारी मानव जाति की अभी तक की प्रगति का मुख्य कारण कहा जा सकता है। कार्य करने से पहले उसके फलस्वरूप वांछित फल की आकांक्षा ही हमें उस कार्य को सफल बनाने के लिए प्रेरित करती है अथवा जन साधारण संभवतः प्रगति के इतने प्रयास न करे। लेकिन इस श्लोक में भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि व्यक्ति के नियंत्रण में केवल उसके प्रयत्न ही होते हैं, किसी भी कार्य का फल उसके मनोवांछित फल से भिन्न भी हो सकता है। उदाहरण के लिए एक पूर्णतः स्वस्थ खिलाड़ी यदि अच्छी तैयारी के साथ मैदान में खेलने उतरे तब वह अपने प्रतिद्वंदी से खेल में जीत सकता है, हार सकता है, ऐसा भी हो सकता है कि खेल के प्रथम चरण में ही उसे किसी कारणवश चोट लग जाये और वह खेलने के लिए अयोग्य हो जाये। परंतु खेल आरंभ होने के पहले निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह जीतेगा, अथवा हारेगा या अयोग्य हो जायेगा। उसका प्रतिद्वंदी उससे अधिक कुशल हो सकता है। खिलाड़ी अपने प्रतिद्वंदी से अधिक कुशल हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि खिलाड़ी अपने प्रतिद्वंदी से अधिक सबल और कुशल हो, परंतु किसी शारीरिक अथवा मानसिक अवसाद के कारण वह प्रतिद्वंदी से हार जाये। यही संभावनाएँ उसके प्रतिद्वंदी पर भी लग सकती है। इन सभी अवस्थाओँ में हर खेल के पहले खिलाड़ी अपने खेल पर ध्यान केंद्रित करके सर्वोत्तम खेल का प्रदर्शन कर सकता है, लेकिन अपनी जीत या हार को सुनिश्चित नहीं कर सकता। इसी प्रकार हर छोटे-बड़े काम में हम अपनी कुशलता, ऊर्जा, रुचि और क्षमता का उपयोग कर सकते हैं, परंतु उस कार्य से मिलने वाले परिणाम पर हमारा नियंत्रण नहीं होता है। यह नियम हम सभी के लिए एक जैसा है। हमारे लिये भी और हमारे आस-पास के लोगों पर भी।
गीता का मुख्य विषय वस्तु कर्मयोग ही है। सामान्यतः हर कार्य हम किसी विशेष फल की आंकाक्षा से ही करते हैं। जिसे हम सामान्य भाषा में लक्ष्य साधना कहते हैं। बचपन से ही बच्चों को सिखाया जाता है कि हर परीक्षा में अच्छे अंक लाओ, अच्छी नौकरी के लिए प्रयास करो। जीवन में व्यवसाय को सफल बनाओ। नाना प्रकार के प्रयासों से अधिकाधिक धनार्जन करो। स्वयं अर्जुन के बारे में हम सभी जानते हैं कि उसने इच्छा पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के विद्याभ्यास और तप किये। चिड़िया को बाण से भेदने की कथा सर्वविदित है, इस कथा में भी फल की इच्छा ही अर्जुन की प्रेरणा का स्त्रोत है। इन सभी प्रयासों के पीछे कर्मफल हमेशा निहित रहा। इसी प्रकार सामान्य व्यवहार में कर्मफल की इच्छा ही सारी मानव जाति की अभी तक की प्रगति का मुख्य कारण कहा जा सकता है। कार्य करने से पहले उसके फलस्वरूप वांछित फल की आकांक्षा ही हमें उस कार्य को सफल बनाने के लिए प्रेरित करती है अथवा जन साधारण संभवतः प्रगति के इतने प्रयास न करे। लेकिन इस श्लोक में भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि व्यक्ति के नियंत्रण में केवल उसके प्रयत्न ही होते हैं, किसी भी कार्य का फल उसके मनोवांछित फल से भिन्न भी हो सकता है। उदाहरण के लिए एक पूर्णतः स्वस्थ खिलाड़ी यदि अच्छी तैयारी के साथ मैदान में खेलने उतरे तब वह अपने प्रतिद्वंदी से खेल में जीत सकता है, हार सकता है, ऐसा भी हो सकता है कि खेल के प्रथम चरण में ही उसे किसी कारणवश चोट लग जाये और वह खेलने के लिए अयोग्य हो जाये। परंतु खेल आरंभ होने के पहले निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह जीतेगा, अथवा हारेगा या अयोग्य हो जायेगा। उसका प्रतिद्वंदी उससे अधिक कुशल हो सकता है। खिलाड़ी अपने प्रतिद्वंदी से अधिक कुशल हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि खिलाड़ी अपने प्रतिद्वंदी से अधिक सबल और कुशल हो, परंतु किसी शारीरिक अथवा मानसिक अवसाद के कारण वह प्रतिद्वंदी से हार जाये। यही संभावनाएँ उसके प्रतिद्वंदी पर भी लग सकती है। इन सभी अवस्थाओँ में हर खेल के पहले खिलाड़ी अपने खेल पर ध्यान केंद्रित करके सर्वोत्तम खेल का प्रदर्शन कर सकता है, लेकिन अपनी जीत या हार को सुनिश्चित नहीं कर सकता। इसी प्रकार हर छोटे-बड़े काम में हम अपनी कुशलता, ऊर्जा, रुचि और क्षमता का उपयोग कर सकते हैं, परंतु उस कार्य से मिलने वाले परिणाम पर हमारा नियंत्रण नहीं होता है। यह नियम हम सभी के लिए एक जैसा है। हमारे लिये भी और हमारे आस-पास के लोगों पर भी।
योगस्थ: कुरु कर्माणि संगंत्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।48।।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।48।।
हे धनञ्जय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में
समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्यकर्मों को कर, समत्व1 ही योग
कहलाता है।। 48।।
(1 जो कुछ भी कर्म किया जाय उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।)
भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन, तुम अपने सभी कर्मों को उनमें संपूर्ण ध्यान केंद्रित करते हुए संपन्न करो। इन कर्मों सिद्धि अर्थात् सफलता और असिद्धि अर्थात् असफलता इन दोनों स्थितियों को समान बुद्धि अथवा एक जैसे भाव से ग्रहण करो। इस प्रकार अपने सभी कार्यों को संपन्न करना ही समत्व योग कहलाता है। साधारणतः हम सभी कार्य के परिणाम की चिंता से व्यथित हो जाते हैं। परिणाम की चिंता भी कार्य की महत्ता के कारण बढ-घट जाती है। नित्य प्रति के साधारण कार्य जैसे दाँत साफ करना अथवा स्नान करने के लिए भी एक निश्चित स्तर की कार्य कुशलता और ध्यान की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार किसी नौकरी अथवा व्यवसाय आदि का कोई कार्य भी कार्य कुशलता और ध्यान की अपेक्षा रखता है। हमारी व्यावसायिक अथवा कार्यालयीन आवश्यकता के परिणाम के विषय हम सभी उद्दिग्न हो सकते हैं, परंतु ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि आप अपने दांत साफ करने के कार्य के परिणाम के विषय में उद्दिग्न हुए हों। इस प्रकार यह सहज ही समझा जा सकता है, कि परिणाम की चिंता आपकी कार्यकुशलता और क्षमता को प्रभावित करती है। यदि किसी प्रकार ऐसा हो सके कि महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपको कोई चिंता न करनी पड़े और वह कार्य भी उसी भाव से किया जाये जिस प्रकार साधारण और दांत साफ करने जैसा महत्वहीन कार्य, तो इस अवस्था को समत्व योग कहेंगे। ऐसी अवस्था में अपने मन और बुद्धि को ले जाना सरल कार्य नहीं है, परंतु यदि आप प्रयास करें तो निश्चित रूप से सफलता पा सकते हैं। सतत् अभ्यास ही इस दिशा में आपकी सहायता कर सकता है। स्वाभाविक है कि यह समत्व योग आपको उस उच्चावस्था में पहुँचा देता है जो कि योगियों को मिलती है। इसीलिए इस समत्व योग को महान कहा गया है।
(1 जो कुछ भी कर्म किया जाय उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।)
भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन, तुम अपने सभी कर्मों को उनमें संपूर्ण ध्यान केंद्रित करते हुए संपन्न करो। इन कर्मों सिद्धि अर्थात् सफलता और असिद्धि अर्थात् असफलता इन दोनों स्थितियों को समान बुद्धि अथवा एक जैसे भाव से ग्रहण करो। इस प्रकार अपने सभी कार्यों को संपन्न करना ही समत्व योग कहलाता है। साधारणतः हम सभी कार्य के परिणाम की चिंता से व्यथित हो जाते हैं। परिणाम की चिंता भी कार्य की महत्ता के कारण बढ-घट जाती है। नित्य प्रति के साधारण कार्य जैसे दाँत साफ करना अथवा स्नान करने के लिए भी एक निश्चित स्तर की कार्य कुशलता और ध्यान की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार किसी नौकरी अथवा व्यवसाय आदि का कोई कार्य भी कार्य कुशलता और ध्यान की अपेक्षा रखता है। हमारी व्यावसायिक अथवा कार्यालयीन आवश्यकता के परिणाम के विषय हम सभी उद्दिग्न हो सकते हैं, परंतु ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि आप अपने दांत साफ करने के कार्य के परिणाम के विषय में उद्दिग्न हुए हों। इस प्रकार यह सहज ही समझा जा सकता है, कि परिणाम की चिंता आपकी कार्यकुशलता और क्षमता को प्रभावित करती है। यदि किसी प्रकार ऐसा हो सके कि महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपको कोई चिंता न करनी पड़े और वह कार्य भी उसी भाव से किया जाये जिस प्रकार साधारण और दांत साफ करने जैसा महत्वहीन कार्य, तो इस अवस्था को समत्व योग कहेंगे। ऐसी अवस्था में अपने मन और बुद्धि को ले जाना सरल कार्य नहीं है, परंतु यदि आप प्रयास करें तो निश्चित रूप से सफलता पा सकते हैं। सतत् अभ्यास ही इस दिशा में आपकी सहायता कर सकता है। स्वाभाविक है कि यह समत्व योग आपको उस उच्चावस्था में पहुँचा देता है जो कि योगियों को मिलती है। इसीलिए इस समत्व योग को महान कहा गया है।
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