मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2महर्षि वेदव्यास
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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।49।।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।49।।
इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का
है। इसलिये हे धनञ्जय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात्
बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर; क्योंकि फल के हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन
हैं।।49।।
भगवान् कहते हैं कि समत्व रूप से कार्य करने वाली बुद्धि से सकाम कार्य करने वाली बुद्धि हेय है। निरंतर कार्य करते रहना जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। जब हम अपने कार्यों से निश्चित अपेक्षायें बाँधकर कार्य करते हैं तो उस कार्य के फल में हमारी अधिक आसक्ति हो जाती है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी उच्चस्तरीय प्रशासनिक सेवा में पद प्राप्त करने के लिए परीक्षा की तैयारी में लगा हुआ है। इस तैयारी में उससे विभिन्न विषयों की अधिकाधिक जानकारी होने की अपेक्षा की जाती है। मान लीजिए कि इस तैयारी को पूरा करने के लिए उसके पास एक वर्ष का समय है। अब नित्य वह व्यक्ति दस-बारह घण्टे इन विषयों की तैयारी में लगाता है। हम सभी का अनुभव है कि, परीक्षा की तैयारी करते समय कभी-कभी हमारा ध्यान इस बात पर चला जाता है कि, पता नहीं परीक्षा में सफलता मिलेगी अथवा नहीं। इस विचार के आते ही हम उद्दिग्न हो जाते हैं और हमारा कुछ समय इस विषय में चिंता में चला जाता है कि, सफलता न मिली तब क्या होगा। यह समय दो-चार मिनट भी हो सकता है और अधिक भी। हम जानते हैं कि इस विचार से कोई लाभ नहीं है, लेकिन परिणाम हमारे पक्ष में ही हो, इस चिंता में हम अपना समय पढ़ाई में लगाना भूल कर, असफलता के कारण होने वाले क्षोभ, निराशा आदि में लगा देते हैं। भगवान् कहते हैं कि यदि तुम समत्व बुद्धि से कार्य करोगे तब तो अपना समय सही दिशा में लगाओगे, अन्यथा निराशा, हताशा आदि के कारींण दीन और दयनीय हो जाओगे। इसलिए समत्व योग की साधना करो।
भगवान् कहते हैं कि समत्व रूप से कार्य करने वाली बुद्धि से सकाम कार्य करने वाली बुद्धि हेय है। निरंतर कार्य करते रहना जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। जब हम अपने कार्यों से निश्चित अपेक्षायें बाँधकर कार्य करते हैं तो उस कार्य के फल में हमारी अधिक आसक्ति हो जाती है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी उच्चस्तरीय प्रशासनिक सेवा में पद प्राप्त करने के लिए परीक्षा की तैयारी में लगा हुआ है। इस तैयारी में उससे विभिन्न विषयों की अधिकाधिक जानकारी होने की अपेक्षा की जाती है। मान लीजिए कि इस तैयारी को पूरा करने के लिए उसके पास एक वर्ष का समय है। अब नित्य वह व्यक्ति दस-बारह घण्टे इन विषयों की तैयारी में लगाता है। हम सभी का अनुभव है कि, परीक्षा की तैयारी करते समय कभी-कभी हमारा ध्यान इस बात पर चला जाता है कि, पता नहीं परीक्षा में सफलता मिलेगी अथवा नहीं। इस विचार के आते ही हम उद्दिग्न हो जाते हैं और हमारा कुछ समय इस विषय में चिंता में चला जाता है कि, सफलता न मिली तब क्या होगा। यह समय दो-चार मिनट भी हो सकता है और अधिक भी। हम जानते हैं कि इस विचार से कोई लाभ नहीं है, लेकिन परिणाम हमारे पक्ष में ही हो, इस चिंता में हम अपना समय पढ़ाई में लगाना भूल कर, असफलता के कारण होने वाले क्षोभ, निराशा आदि में लगा देते हैं। भगवान् कहते हैं कि यदि तुम समत्व बुद्धि से कार्य करोगे तब तो अपना समय सही दिशा में लगाओगे, अन्यथा निराशा, हताशा आदि के कारींण दीन और दयनीय हो जाओगे। इसलिए समत्व योग की साधना करो।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।।50।।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।।50।।
समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग
देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग में लग जा; यह
समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्मबन्धन से छूटने का उपाय
है।।50।।
कर्मों के फलों में समान बुद्धि (सफलता और असफलता दोनों को समान भाव से ग्रहण करना) का भाव हो जाने पर जब व्यक्ति को अपने कार्य में सफलता मिलती है, तो उस सफलता से उसे घमण्ड नहीं होता। इसी प्रकार असफलता मिलने पर क्षोभ नहीं होता। घमण्ड न होने के कारण वह अपने व्यवहार से अन्य लोगों को अनावश्यक पीड़ा नहीं पहुँचाता। इसी प्रकार असफलता मिलने पर यदि क्षोभ नहीं होता तब वह स्वयं को दुःखी कर पीड़ा का भोग नहीं करता। इस प्रकार समान बुद्धि से किये गये कर्म भविष्य के बन्धनों का कारण नहीं बनते। भगवान् कहते हैं कि कर्मो में कुशलता के लिए समभाव का होना आवश्यक है।
कर्मों के फलों में समान बुद्धि (सफलता और असफलता दोनों को समान भाव से ग्रहण करना) का भाव हो जाने पर जब व्यक्ति को अपने कार्य में सफलता मिलती है, तो उस सफलता से उसे घमण्ड नहीं होता। इसी प्रकार असफलता मिलने पर क्षोभ नहीं होता। घमण्ड न होने के कारण वह अपने व्यवहार से अन्य लोगों को अनावश्यक पीड़ा नहीं पहुँचाता। इसी प्रकार असफलता मिलने पर यदि क्षोभ नहीं होता तब वह स्वयं को दुःखी कर पीड़ा का भोग नहीं करता। इस प्रकार समान बुद्धि से किये गये कर्म भविष्य के बन्धनों का कारण नहीं बनते। भगवान् कहते हैं कि कर्मो में कुशलता के लिए समभाव का होना आवश्यक है।
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