मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2महर्षि वेदव्यास
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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।51।।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।51।।
क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने
वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो
जाते हैं।।51।।
साधारणतः मनुष्य कर्मफलों में आसक्ति रखकर ही अधिकांश कर्म करता है। इस प्रकार कर्मफलों की आसक्ति के कारण उनका मन कर्म करने से पहले, कर्म करते समय और कर्म पूरा हो जाने के बाद भी अपने कर्मों के फलों की चिंता अथवा विवेचना में लगा रहता है। यह विवेचना अथवा चिंता ही उनके बन्धनों का कारण बनती है। इसके विपरीत ज्ञानीजन कर्मफल में कोई आसक्ति न रखते हुए समबुद्धि से कर्म करते हैं। इस प्रकार उनको कर्मो के फल स्वाभाविक प्रक्रिया से अधिक कुछ नहीं होते हैं। उनका जीवन असफलता-सफलता से प्रभावित न होकर यथावत चलता रहता है। कर्मफलों में अनासक्ति के कारण वे कर्मों के विषय में अनावश्यक विचार में अपना समय नहीं लगाते है। ऐसा कहा जाता है कि मनुष्य अपने कर्मो के फलों के उपभोग के लिए ही जन्म लेता है। यदि पिछले जन्मों के कर्मों आसक्ति न होती तो यह जन्म न होता। इस प्रकार ज्ञानीजन अपने कर्मफलों में आसक्ति मिटाकर भविष्य में आने वाले जन्म-रूपी फलों को त्याग देते हैं।
साधारणतः मनुष्य कर्मफलों में आसक्ति रखकर ही अधिकांश कर्म करता है। इस प्रकार कर्मफलों की आसक्ति के कारण उनका मन कर्म करने से पहले, कर्म करते समय और कर्म पूरा हो जाने के बाद भी अपने कर्मों के फलों की चिंता अथवा विवेचना में लगा रहता है। यह विवेचना अथवा चिंता ही उनके बन्धनों का कारण बनती है। इसके विपरीत ज्ञानीजन कर्मफल में कोई आसक्ति न रखते हुए समबुद्धि से कर्म करते हैं। इस प्रकार उनको कर्मो के फल स्वाभाविक प्रक्रिया से अधिक कुछ नहीं होते हैं। उनका जीवन असफलता-सफलता से प्रभावित न होकर यथावत चलता रहता है। कर्मफलों में अनासक्ति के कारण वे कर्मों के विषय में अनावश्यक विचार में अपना समय नहीं लगाते है। ऐसा कहा जाता है कि मनुष्य अपने कर्मो के फलों के उपभोग के लिए ही जन्म लेता है। यदि पिछले जन्मों के कर्मों आसक्ति न होती तो यह जन्म न होता। इस प्रकार ज्ञानीजन अपने कर्मफलों में आसक्ति मिटाकर भविष्य में आने वाले जन्म-रूपी फलों को त्याग देते हैं।
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।52।।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।52।।
जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जायगी,
उस समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगों
से वैराग्य को प्राप्त हो जायगा।।52।।
सामान्य रूप से जीवन निर्वाह करने वाले सभी व्यक्ति इस जगत् के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ अपना जीवन जीते रहते हैं। अधिकांश व्यक्तियों का जीवन शरीर प्रधान होता है। इस प्रकार के व्यक्तियों के जीवन का अधिकांश भाग शरीर संबंधित कार्य-कलाप में व्यतीत होता है। इनका ध्यान जीवन-पर्यंत भोजन की व्यवस्था, शारीरिक सौष्ठव, शारीरिक सौंदर्य और शारीरिक कष्ट और आराम आदि में लगा रहता है। इस प्रकार इन व्यक्तियों की जाग्रत और स्वपनावस्था शारीरिक संभावनाओँ और उपलब्धियों के विषय में विचार करते हुए व्यतीत होती है। कुछ अन्य के लिए मनो भावनाएँ जीवन का केन्द्र होती हैं। किसने क्या कहा? कौन किसके बारे में क्या सोचता है? मुझसे अन्य लोगों का व्यवहार कैसा है? मैंने अन्य लोगों के लिए क्या किया। अन्य लोगों ने मेरे लिए क्या किया आदि। इस प्रकार ये व्यक्ति जाग्रत और स्वप्नावस्था में इन्ही मनो भावनाओँ से प्रेरित अपना जीवन संचालित करते रहते हैं। कुछ अन्य लोग शरीर और मन से अधिक प्रभावित होते हैं, परंतु इनकी बुद्धि अच्छे, बुरे कार्य करने में व्यस्त रहती है। इस प्रकार के लोग अपने शारीरिक सुख-दुःख की चिंता किये बगैर अपना बौद्धिक कार्य साधने में लगे रहते हैं। ये लोग अपनी इच्छाओँ के आगे, अपनी और अन्य लोगों की शारीरिक क्षमता, मनोभावानाओँ की अधिक चिंता नहीं करते हैं। जीवन में अपने बौद्धिक लक्ष्य तक पहुँचना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उपरोक्त वर्णित सभी लोग अलग-अलग प्रकार की संकीर्ण विचाराधाराओँ से प्रेरित अपना जीवन संचालित करते रहते हैं। अधिकांश लोगों के लिए इस प्रकार की जीवन शैली एक विशेष संकीर्णता लिए रहती है, जिसमें अपने स्वभाववश वे जीवन-यापन करते रहते हैं। इनके अलावा कुछ अन्य लोग ऐसे भी होते हैं, जो अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों से बाहर जाकर अन्य व्यक्तियों और समाज के लिए भी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर कार्यरत रहते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति अपने साथ-साथ अन्य लोगों के जीवन को सुलभ बनाने की चेष्टा करते रहते हैं, परंतु अंततोगत्वा ये सभी अपने-अपने प्रकार के दलदल में फँसे रहते हैं। भगवान् यहाँ अर्जुन का ध्यान इस बात पर आकृष्ट करते हैं कि इन सभी प्रकार के दलदलों से बाहर निकल कर इनके मूल में जाने अथवा इनकी सीमाओँ से बाहर निकलने से तुम स्वतः वैराग्य को प्राप्त हो जाओगे। चूँकि इन विभिन्न प्रकार के दलदलों में फँसे लोग अपनी-अपनी अवस्था के अनुसार रुचिकर भोगों को प्राप्त करने अथवा भोगने की विधियाँ बताते हैं, इसलिए तुम इस प्रकार के भोगों को भोगने की अब तक बताई गईं विधियाँ और भविष्य में बतायी जाने वाली विधियों से स्वतः विरक्त हो जाओगे।
सामान्य रूप से जीवन निर्वाह करने वाले सभी व्यक्ति इस जगत् के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ अपना जीवन जीते रहते हैं। अधिकांश व्यक्तियों का जीवन शरीर प्रधान होता है। इस प्रकार के व्यक्तियों के जीवन का अधिकांश भाग शरीर संबंधित कार्य-कलाप में व्यतीत होता है। इनका ध्यान जीवन-पर्यंत भोजन की व्यवस्था, शारीरिक सौष्ठव, शारीरिक सौंदर्य और शारीरिक कष्ट और आराम आदि में लगा रहता है। इस प्रकार इन व्यक्तियों की जाग्रत और स्वपनावस्था शारीरिक संभावनाओँ और उपलब्धियों के विषय में विचार करते हुए व्यतीत होती है। कुछ अन्य के लिए मनो भावनाएँ जीवन का केन्द्र होती हैं। किसने क्या कहा? कौन किसके बारे में क्या सोचता है? मुझसे अन्य लोगों का व्यवहार कैसा है? मैंने अन्य लोगों के लिए क्या किया। अन्य लोगों ने मेरे लिए क्या किया आदि। इस प्रकार ये व्यक्ति जाग्रत और स्वप्नावस्था में इन्ही मनो भावनाओँ से प्रेरित अपना जीवन संचालित करते रहते हैं। कुछ अन्य लोग शरीर और मन से अधिक प्रभावित होते हैं, परंतु इनकी बुद्धि अच्छे, बुरे कार्य करने में व्यस्त रहती है। इस प्रकार के लोग अपने शारीरिक सुख-दुःख की चिंता किये बगैर अपना बौद्धिक कार्य साधने में लगे रहते हैं। ये लोग अपनी इच्छाओँ के आगे, अपनी और अन्य लोगों की शारीरिक क्षमता, मनोभावानाओँ की अधिक चिंता नहीं करते हैं। जीवन में अपने बौद्धिक लक्ष्य तक पहुँचना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उपरोक्त वर्णित सभी लोग अलग-अलग प्रकार की संकीर्ण विचाराधाराओँ से प्रेरित अपना जीवन संचालित करते रहते हैं। अधिकांश लोगों के लिए इस प्रकार की जीवन शैली एक विशेष संकीर्णता लिए रहती है, जिसमें अपने स्वभाववश वे जीवन-यापन करते रहते हैं। इनके अलावा कुछ अन्य लोग ऐसे भी होते हैं, जो अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों से बाहर जाकर अन्य व्यक्तियों और समाज के लिए भी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर कार्यरत रहते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति अपने साथ-साथ अन्य लोगों के जीवन को सुलभ बनाने की चेष्टा करते रहते हैं, परंतु अंततोगत्वा ये सभी अपने-अपने प्रकार के दलदल में फँसे रहते हैं। भगवान् यहाँ अर्जुन का ध्यान इस बात पर आकृष्ट करते हैं कि इन सभी प्रकार के दलदलों से बाहर निकल कर इनके मूल में जाने अथवा इनकी सीमाओँ से बाहर निकलने से तुम स्वतः वैराग्य को प्राप्त हो जाओगे। चूँकि इन विभिन्न प्रकार के दलदलों में फँसे लोग अपनी-अपनी अवस्था के अनुसार रुचिकर भोगों को प्राप्त करने अथवा भोगने की विधियाँ बताते हैं, इसलिए तुम इस प्रकार के भोगों को भोगने की अब तक बताई गईं विधियाँ और भविष्य में बतायी जाने वाली विधियों से स्वतः विरक्त हो जाओगे।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।53।।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।53।।
भांति-भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब
परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जायगी, तब तू योग को प्राप्त हो जायगा अर्थात्
तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जायगा।।53।।
जब तक हमारा ध्यान जीवन में शरीर, मन और बुद्धि से इतर संभावनाओं में नहीं लगता, तब तक हम इनमें से किसी-न-किसी (शरीर,मन और बुद्धि) के चक्र में घूमते रहते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जीवनपर्यन्त हमारे आस-पास के लोग अपनी रुचियों और ज्ञान के अनुसार हमें सलाह देते रहते हैं। सामान्य बुद्धि का ऐसा व्यक्ति जो इन सब बातों पर अधिक विचार नहीं करता, इस परिस्थिति को पूर्णतः सामान्य मानते हुए इन सलाहों और सामाजिक परंपराओँ की सीमाओँ में अपना जीवन निर्वाह करता रहता है। भगवान् कहते हैं कि इस भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से प्रभावित हुई अथवा विचलित हुई हमारी बुद्धि अर्थ-अनर्थ का विवेक नहीं कर पाती। लेकिन जब व्यक्ति का ध्यान इस प्रकार की विसंगतियों पर जाता है, तो वह आत्म-अनात्म का विवेक करने में प्रवृत्त होता है और तब इस विवेक के कारण उसकी बुद्धि वास्तविक तत्व में दृढ़ होकर स्थिर होने लगती है। इस प्रकार शनैः शनैः व्यक्ति का परमात्मा के वास्तविक स्वरूप से योग होता है और सतत् प्रयास यह नित्य और दृढ़ होता जाता है।
जब तक हमारा ध्यान जीवन में शरीर, मन और बुद्धि से इतर संभावनाओं में नहीं लगता, तब तक हम इनमें से किसी-न-किसी (शरीर,मन और बुद्धि) के चक्र में घूमते रहते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जीवनपर्यन्त हमारे आस-पास के लोग अपनी रुचियों और ज्ञान के अनुसार हमें सलाह देते रहते हैं। सामान्य बुद्धि का ऐसा व्यक्ति जो इन सब बातों पर अधिक विचार नहीं करता, इस परिस्थिति को पूर्णतः सामान्य मानते हुए इन सलाहों और सामाजिक परंपराओँ की सीमाओँ में अपना जीवन निर्वाह करता रहता है। भगवान् कहते हैं कि इस भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से प्रभावित हुई अथवा विचलित हुई हमारी बुद्धि अर्थ-अनर्थ का विवेक नहीं कर पाती। लेकिन जब व्यक्ति का ध्यान इस प्रकार की विसंगतियों पर जाता है, तो वह आत्म-अनात्म का विवेक करने में प्रवृत्त होता है और तब इस विवेक के कारण उसकी बुद्धि वास्तविक तत्व में दृढ़ होकर स्थिर होने लगती है। इस प्रकार शनैः शनैः व्यक्ति का परमात्मा के वास्तविक स्वरूप से योग होता है और सतत् प्रयास यह नित्य और दृढ़ होता जाता है।
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