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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


श्रीभगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्यार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।55।।

श्रीभगवान् बोले - हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।।55।।

जब तक जीवन है, क्या सम्पूर्ण कामनाओँ का त्याग किया जा सकता है? किसी भी प्राणी मात्र के लिए क्या यह कभी भी संभव है? उसी प्रकार कामनाओँ का हमारे मन पर प्रभाव न्यून या अधिक हो सकता है। लेकिन कामनाएँ ही न रहें यह जीवन में संभव नहीं है। तब क्या इस श्लोक में भगवान् अर्जुन को जो बता रहे हैं वह संभव ही नहीं है? वस्तुतः इस जगत् का मूल कारण क्या है? वह परमार्थ तत्त्व क्या है? इस जगत् का सार क्या है? इत्यादि प्रश्नों का समाधान हो जाने के उपरांत धीरे-धीरे कामानाओँ की निस्सारता अनुभव होने लगती है। इस नश्वर संसार की सभी वस्तुओं की क्षणभंगुरता का भी ज्ञान होने लगता है। उदाहरण के लिए एक बार अर्जित किये गये धन को संभालना कितना कठिन कार्य है, इसका अनुभव अधिकांश वयस्क लोगों को होता है। इसी प्रकार शरीर को स्वस्थ बनाए रखना भी नित्य प्रति का कार्य है। परंतु फिर भी इन सभी के विषय में निश्चय से नहीं कहा जा सकता है कि हमारे समस्त प्रयत्नों के बाद भी वे हमेशा हमारे अनुकूल ही रहेंगे। परंतु “सत्यम् ज्ञान अनंतम्“ परमात्मा का अनुभव हो जाने के पश्चात् और इस “एकमात्र सत्य” का बोध हो जाने के पश्चात् पुनः “आद्यावन्ते चयननास्ति वर्तमाने वितथ्तदा” के ज्ञान से सभी कामनाएँ निष्प्राय हो जाती हैं। इस वस्तु स्थिति में सदा “स्थित” अथवा “दृढ़” रहने वाला व्यक्ति इन कामनाओं के प्रभाव से विरक्त हो जाता है। इस प्रकार कामनाओँ के उतार-चढ़ाव से अप्रभावित होने वाला व्यक्ति स्वयम् अपने वास्तविक रूप में रहता हुआ स्वयम् से स्वयम् को संतुष्ट करता है।

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