मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3महर्षि वेदव्यास
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मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।30।।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।30।।
मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्तद्वारा सम्पूर्ण
कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध
कर।।30।।
भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि तुम जीवन के अपने छोटे-बड़े सभी कर्मों को करते समय अपनी बुद्धि को आत्मचेतना में संपूर्ण रूप से जोड़ कर उन कर्मों को करो। हे अर्जुन तुम अपने मन से मानसिक संताप अर्थात् विचाररूपी मानसिक ज्वर को निकालकर युद्ध में प्रवृत्त हो जाओ। इस युद्ध में निराशा अर्थात् जयाजय आदि किसी भी प्रकार की आशा को न करते हुए, सभी प्रकार की आशंकाओं को त्याग कर अपने कर्मों को करो। इसी प्रकार निर्मम होकर अर्थात् युद्ध के परिणामों में ममत्व के भाव को त्याग कर कर्म करो। मत सोचो कि इस युद्ध में भाग लेने वाले लोगों से मेरा क्या संबंध है। वे मेरे भाई हैं, मेरे चाचा हैं, मेरे पितामह हैं, मेरे मित्र हैं। इस युद्ध में होने वाली हानि से मुझे कष्ट होगा। इन सब विचारों से पूर्णतः निस्पृह हो जाओ और युद्ध करो। आज के संदर्भ में देखें तो उदाहरण के लिए एक नौकरी ढूँढ़ने वाला नवयुवक नौकरी ढूँढ़ते समय सफलता या असफलता को न सोचकर अपनी बुद्धि को पूरे समर्पण के साथ आत्मचेतना में केंद्रित करके आशा-निराशा के विषय में न सोचते हुए, परीक्षा से अपना कोई लगाव न रखते हुए शुद्ध विचारों से प्रयास करने की चेष्टा करे। इस प्रकार कार्य करना निश्चित ही कठिन कार्य है, परंतु भगवान् बिलकुल स्पष्ट शब्दों में यही कह रहे हैं।
भगवद्गीता अथवा वेदान्त का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को इस अवस्था में ले जाना है जिसमें वह सदा आनन्दमय और निर्भय, चिन्तारहित, कठिन से कठिन परिस्थिति में भी सदा प्रसन्न रहे। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए इस श्लोक का संदेश अत्यंत महत्वपूर्ण है। आशा-निराशा, जय-पराजय, हानि-लाभ की चिंताओं में डूबा हुआ मनुष्य उस रोगी के समान है जिसे ज्वर ने पीड़ित कर रखा है। बुद्धि को आत्मस्वरूप चैतन्य में दृढ़तापूर्वक संलग्न करने से ही मानसिक चिंतारूपी ज्वर से मुक्त व्यक्ति निर्भय और आनन्दमय जीवनयापन कर सकता है।
अर्जुन अपने समय के बड़े योद्धा हैं और उनके लिए महत्वपूर्ण कार्य युद्ध करना है। परंतु हम सबको अपने जीवन में शस्त्रों वाला युद्ध तो नहीं करना, परंतु हमारी अपनी समस्याएँ हैं, और उन समस्याओँ से निपटने के लिए अथवा अपनी इच्छाओँ को पूर्ण करने के लिए हमें भी युद्ध स्तर पर ही कार्य करना होता है। इन महत्वपूर्ण कार्यो के करते समय स्वाभाविक है कि हममें इसके प्रति आशाएँ होती है, इन कार्यो में ममत्व भाव होता है। भगवान् कहते हैं कि यदि हम अपनी आशाओँ को अध्यात्मचेतसा (चेतना का केंद्रबिंदु अध्यात्म अर्थात् परमात्मा) करते हुए और अपने ममत्व भाव को परमात्मा में लगाते हुए कर्म करें तो चिंतारूपी ज्वर की पीड़ा से बच सकते हैं और स्वस्थ होकर जीवन के युद्ध में सफल हो सकते हैं।
भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि तुम जीवन के अपने छोटे-बड़े सभी कर्मों को करते समय अपनी बुद्धि को आत्मचेतना में संपूर्ण रूप से जोड़ कर उन कर्मों को करो। हे अर्जुन तुम अपने मन से मानसिक संताप अर्थात् विचाररूपी मानसिक ज्वर को निकालकर युद्ध में प्रवृत्त हो जाओ। इस युद्ध में निराशा अर्थात् जयाजय आदि किसी भी प्रकार की आशा को न करते हुए, सभी प्रकार की आशंकाओं को त्याग कर अपने कर्मों को करो। इसी प्रकार निर्मम होकर अर्थात् युद्ध के परिणामों में ममत्व के भाव को त्याग कर कर्म करो। मत सोचो कि इस युद्ध में भाग लेने वाले लोगों से मेरा क्या संबंध है। वे मेरे भाई हैं, मेरे चाचा हैं, मेरे पितामह हैं, मेरे मित्र हैं। इस युद्ध में होने वाली हानि से मुझे कष्ट होगा। इन सब विचारों से पूर्णतः निस्पृह हो जाओ और युद्ध करो। आज के संदर्भ में देखें तो उदाहरण के लिए एक नौकरी ढूँढ़ने वाला नवयुवक नौकरी ढूँढ़ते समय सफलता या असफलता को न सोचकर अपनी बुद्धि को पूरे समर्पण के साथ आत्मचेतना में केंद्रित करके आशा-निराशा के विषय में न सोचते हुए, परीक्षा से अपना कोई लगाव न रखते हुए शुद्ध विचारों से प्रयास करने की चेष्टा करे। इस प्रकार कार्य करना निश्चित ही कठिन कार्य है, परंतु भगवान् बिलकुल स्पष्ट शब्दों में यही कह रहे हैं।
भगवद्गीता अथवा वेदान्त का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को इस अवस्था में ले जाना है जिसमें वह सदा आनन्दमय और निर्भय, चिन्तारहित, कठिन से कठिन परिस्थिति में भी सदा प्रसन्न रहे। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए इस श्लोक का संदेश अत्यंत महत्वपूर्ण है। आशा-निराशा, जय-पराजय, हानि-लाभ की चिंताओं में डूबा हुआ मनुष्य उस रोगी के समान है जिसे ज्वर ने पीड़ित कर रखा है। बुद्धि को आत्मस्वरूप चैतन्य में दृढ़तापूर्वक संलग्न करने से ही मानसिक चिंतारूपी ज्वर से मुक्त व्यक्ति निर्भय और आनन्दमय जीवनयापन कर सकता है।
अर्जुन अपने समय के बड़े योद्धा हैं और उनके लिए महत्वपूर्ण कार्य युद्ध करना है। परंतु हम सबको अपने जीवन में शस्त्रों वाला युद्ध तो नहीं करना, परंतु हमारी अपनी समस्याएँ हैं, और उन समस्याओँ से निपटने के लिए अथवा अपनी इच्छाओँ को पूर्ण करने के लिए हमें भी युद्ध स्तर पर ही कार्य करना होता है। इन महत्वपूर्ण कार्यो के करते समय स्वाभाविक है कि हममें इसके प्रति आशाएँ होती है, इन कार्यो में ममत्व भाव होता है। भगवान् कहते हैं कि यदि हम अपनी आशाओँ को अध्यात्मचेतसा (चेतना का केंद्रबिंदु अध्यात्म अर्थात् परमात्मा) करते हुए और अपने ममत्व भाव को परमात्मा में लगाते हुए कर्म करें तो चिंतारूपी ज्वर की पीड़ा से बच सकते हैं और स्वस्थ होकर जीवन के युद्ध में सफल हो सकते हैं।
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