मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3महर्षि वेदव्यास
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ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।।31।।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।।31।।
जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर
मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते
हैं।।31।।
उत्कृष्ट और आनन्दमय जीवन जीने का मंत्र पिछले श्लोक में बताने के बाद बुद्धिवादियों का स्वभाव और कभी-कभी उनका तर्क की सीमा लांघ कर तर्क में उलझे रहने की वृत्ति को जानते हुए भगवान् इस दोष के विषय में सावधान करते हैं। मनुष्य में जगत् से व्यवहार करने का सबसे संपन्न यंत्र बुद्धि है। क्योंकि हम सभी जानते हैं कि शरीर की क्षमताएँ मन और बुद्धि दोनों से निम्नकोटि की है। इसी प्रकार मन के प्रभाव में मनुष्य असाधारण प्रयोग अवश्य कर सकता है, लेकिन मन से संचालित व्यक्ति उसकी चंचलता के कारण अपने स्वयं के नियंत्रण में नहीं रह पाता। इन सबके विपरीत बुद्धिवादी मनुष्य किसी भी प्रश्न पर अनगिनत तर्क लगा सकते हैं। कभी-कभी इन तर्कों के प्रभाव में व्यक्ति गुण-दोष के अवलोकन में इतना खो जाता है कि वह मर्म की बात ही भूल जाता है।
मनुष्यों के इस गुण को जानते हुए भगवान् कहते हैं कि जब तक मनुष्य भगवान् के वास्तविक परिचय से यथार्थ रूप में परिचित नहीं होता, तब तक उसे पिछले श्लोक के संदेश का पूर्ण श्रद्धा और दोष से रहित विचारधारा के साथ अनुकरण करना चाहिए। इस प्रकार सतत् अभ्यास से मनुष्य भगवान् के वास्तविक स्वरूप का यथार्थ तत्त्वज्ञान कर पाता है। जीव के कर्मों का बंधन केवल अज्ञान की अवस्था तक ही संभव है। कर्म इस जगत् में व्यवहार की वस्तु हैं। जब मनुष्य का पारमार्थिक अनुभव उसे इस जगत् के परे ले जाता है, तब उस अवस्था में न कर्म रहते हैं और न ही कर्मों के बंधन।
उत्कृष्ट और आनन्दमय जीवन जीने का मंत्र पिछले श्लोक में बताने के बाद बुद्धिवादियों का स्वभाव और कभी-कभी उनका तर्क की सीमा लांघ कर तर्क में उलझे रहने की वृत्ति को जानते हुए भगवान् इस दोष के विषय में सावधान करते हैं। मनुष्य में जगत् से व्यवहार करने का सबसे संपन्न यंत्र बुद्धि है। क्योंकि हम सभी जानते हैं कि शरीर की क्षमताएँ मन और बुद्धि दोनों से निम्नकोटि की है। इसी प्रकार मन के प्रभाव में मनुष्य असाधारण प्रयोग अवश्य कर सकता है, लेकिन मन से संचालित व्यक्ति उसकी चंचलता के कारण अपने स्वयं के नियंत्रण में नहीं रह पाता। इन सबके विपरीत बुद्धिवादी मनुष्य किसी भी प्रश्न पर अनगिनत तर्क लगा सकते हैं। कभी-कभी इन तर्कों के प्रभाव में व्यक्ति गुण-दोष के अवलोकन में इतना खो जाता है कि वह मर्म की बात ही भूल जाता है।
मनुष्यों के इस गुण को जानते हुए भगवान् कहते हैं कि जब तक मनुष्य भगवान् के वास्तविक परिचय से यथार्थ रूप में परिचित नहीं होता, तब तक उसे पिछले श्लोक के संदेश का पूर्ण श्रद्धा और दोष से रहित विचारधारा के साथ अनुकरण करना चाहिए। इस प्रकार सतत् अभ्यास से मनुष्य भगवान् के वास्तविक स्वरूप का यथार्थ तत्त्वज्ञान कर पाता है। जीव के कर्मों का बंधन केवल अज्ञान की अवस्था तक ही संभव है। कर्म इस जगत् में व्यवहार की वस्तु हैं। जब मनुष्य का पारमार्थिक अनुभव उसे इस जगत् के परे ले जाता है, तब उस अवस्था में न कर्म रहते हैं और न ही कर्मों के बंधन।
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